लघु उपन्यास : करवट (पांचवीं क़िस्त)
खाना खाकर मानसी ने अपने बच्चों के साथ ही सोने को कहा, तो रामकुमार को बड़ा ही अटपटा सा लगा। उसने कहा- ‘बुआ हम इहै बैठका में सोइ जाइब। आपके कौनौ परेशान होए के जरूरत नाहीं बा।’ इस पर मानसी ने डांटते हुए कहा- ‘करे जब भइया के पता चली त हमार कउन गति करिहै जानत हउवा, जंहवा कहत हई तहवा सोई जा। समझला।’
रामकुमार को बिस्तर पर लेटते ही आँखों के सामने अपने माई और बाबू की टूटी हुई खाट और जमीन पर पड़ने वाली कथरी (पुराने कपड़ों से बना हुआ बिस्तर), जिससे कहीं-कहीं तो जमीन भी दिखायी पड़ती थी, याद आ रही थी। रामकुमार शरीर से काफी थक चुका था, किन्तु मां बाप से इतनी दूरी पहली बार थी, जो उसको बार-बार उनको सामने ला कर खड़ा कर दे रही थी। रामकुमार को थकान से कब नींद आयी और मानसी के बेटों ने कब लाईट को बन्द किया, इसका उसे पता भी न चला।
रामकुमार को अपने पढ़ाई के लिए किताबें और परीक्षा पूर्व प्रशिक्षण केन्द्रों का पता लगाना था, जहां से उसको परीक्षा आधारित शिक्षा पद्धति का भी ज्ञान हो सके। मानसी के बड़े बेटे शंकर को साथ लेकर किताबों को लेने के लिए गया। चैराहों पर इतनी मात्रा में पुलिस को देखकर और मकानों को देखकर चकित था। उसने शंकर से पूछा- ‘इहा हमेशा एतनै भीड़ रहत है?’ शंकर ने कहा- ‘इसीलिए ही तो इसको राजधानी कहते हैं।’
शंकर ने यहां की बहुमंजिली इमारतों से परिचय कराया। रामकुमार ने अपने दिमाग में शहर की तमाम इमारतों को बसाया। तभी उन्होंने एक बड़े से हाल वाली दुकान में प्रवेश किया, जहां चारों ओर किताबों का भण्डार था। इतनी बड़ी किताबों की दुकान उसने पहली बार देखी थी। उसने वहां से मेडिकल परीक्षा के लिए फार्म खरीदा और फिर परीक्षा पूर्व के प्रशिक्षण केन्द्र्र (कोचिंग) जाकर वहां पर दाखिले की जानकारी ली। रामकुमार और शंकर दोनों वापस इन्दिरानगर पहुँचे।
पहले से ही फौलादी इच्छा शक्ति के वाले रामकुमार ने ज्ञान की दौड़ में सदा ही अव्वल रहना सीखा था। मानसी बुआ के यहाँ बड़े भाई शंकर, छोटे भाई अमर, और बहन पूजा के साथ मित्रवत रहने लगा। पढ़ाई में उत्तम होने के कारण जल्दी ही वह तीनों को भी जरूरत के अनुसार ज्ञान भी बाँटने लगा था। रामकुमार अपनी लगन का इतना पक्का था कि वह कब पढ़ना शुरू करता और कब रात होती और रात से कब सुबह हो जाती थी, यह समझना बड़ा ही कठिन था।
रात दिन की रामकुमार की मेहनत के बीच ही एक दिन सुबह मानसी ने बताया कि आज पूजा बेटी का जन्मदिन है। रामकुमार को शाम को जन्मोत्सव के जलसे के बारे में बताया। रामकुमार ने अपनी व्यस्तता में से समय निकाल कर दिनभर भाग दौड़ कर तैयारी कराने में मानसी बुआ की मदद की और पूजा को जन्मदिन की बधाई दी।
रामकुमार से बात करते हुए मानसी के पड़ोसी शर्मा जी को उसके स्टडी और कैरियर के बारे में जानकारी देते हुए परिचय कराया। शर्मा जी ने बाद में चलते समय रामकुमार से अपने बेटों को भी ट्यूशन पढ़ाने के लिए निमंत्रित किया। रामकुमार ने मानसी बुआ को उनकी बात जब बतायी, तो मानसी बुआ ने कहा कि अगर समय दे सकते हो, तो थोड़ा सा समय देने में कोई भी बुराई नहीं है। मानसी बुआ ने जोर भी दिया और फिर रामकुमार ने ‘हां’ कर दिया। जबकि उसकी प्राथमिकता तो कुछ और ही थी।
उसने अपने व्यस्त जीवन में से थोड़ा सा समय निकाला और ट्यूशन देने लगा। उसने पाया कि यह तो उसके कम्पटीशन में और सहायक हो रही है। उसको इतनी ख्याति मिली कि शर्मा जी के घर पर ही दस बच्चों का शिक्षण कार्य करने लगा। सौभाग्य से उसके पढ़ाने में इतना अपनापन था कि उससे पढ़कर सभी बच्चों ने अपने स्कूल में उत्तम स्थान प्राप्त किया। रामकुमार का जीवन एक बार फिर करवट लेने लगा, जो उसकी ख्याति को और बढ़ा रही थी।
एक दिन शंकर ने रामकुमार से कहा- ‘रामकुमार, चलो आज फिल्म देखने चलते हैं।’ शंकर की बातों को मानसी ने भी जोर देकर कहा कि रामकुमार, जाओ, फिल्म देख आओ। रामकुमार ने बुआ के जोर देने पर जाने के लिए ‘हां’ कर दिया। फिर दोनों नावेल्टी सिनेमा हाल पर पहुँचे, जहां पर फिल्म ‘मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस.’ चल रही थी। हाल पर खिड़की से सड़क तक की लाईन लगी हुई थी। शंकर लाइन में लग गया। तभी अचानक एक आदमी बगल में आया, धीरे से रामकुमार से बोला- ‘भाई साहब बालकनी का दो टिकट है, 250 रू. में है, लाईन नही लगानी पडे़गी, जल्दी फैसला करो। सामने पान वाली दुकान पर है।’
रामकुमार ने यह बात शंकर को जब बतायी, तो शंकर रामकुमार को अपनी जगह लाइन में लगा कर उस आदमी के पास पान की दुकान पर गया। उस आदमी ने कहा कि 250 रू. लाओ। शंकर ने पूछा कि इवनिंग के शो का ही है। उसने कहा- ‘चेक कर लो।’ शंकर ने चेक किया तो सही था, उसने उस आदमी से 250 रू. दे कर टिकट ले लिया। पीछे से चौथी लाईन में 8 व 9 नम्बर की सीट थी। दोनों ने फिल्म देखी और हंसते हुए सिनेमा हाल से निकल कर बस में बैठ कर इन्द्रानगर के लिए चल पड़े।
गोमती नदी को पार करते समय किनारे पर सब्जी बेचने वालों को देख कर पूछा कि ये सब्जी वाले यहीं पर रहते हैं? शंकर ने कहा- ‘नहीं, ये सब्जी बेच कर अपने गांव को चले जाते हैं’। इस तरह शहर की तमाम जानकारी लेते हुए बस ने रामकुमार को उसके गन्तव्य स्थान पर पहुँचा दिया।
जारी…
धन्यवाद विजय सिंघल जी आपकी प्रेरणा ही करवट की जान है।
‘करवट’ उपन्यास की यह क़िस्त भी रोचक रही. मेहनत का फल भावी डाक्टर राम कुमार को अवश्य मिलेगा.