उपन्यास अंश

उपन्यास : शान्तिदूत (उन्तालीसवीं कड़ी)

राजसभा में पांचाली के वस्त्रहरण का कृष्ण द्वारा उल्लेख करने पर युवराज दुर्योधन आगबबूला हो गया, जैसे किसी ने उसको ही निर्वस्त्र कर दिया हो।

‘वह महारानी नहीं हमारी दासी थी, कृष्ण!’ दुर्योधन गुर्राकर बोला।

‘वह कुरुवंश की कुलवधू और इन्द्रप्रस्थ की साम्राज्ञी आपकी दासी कैसे हो गयी, युवराज?’ कृष्ण ने सीधे दुर्योधन की ओर देखते हुए प्रश्न किया।

‘उसके पतियों ने उसे द्यूत में हार दिया था, हमने उसे जीत लिया। इससे वह हमारी दासी हो गयी।’

‘वह द्यूत छल से खेला गया था। फिर उसके पति पहले स्वयं को हार गये थे, इसलिए पत्नी को दांव पर लगाने का अधिकार उनको नहीं था।’ कृष्ण ने एक-एक शब्द पर जोर देते हुए कहा। ‘अगर यह मान भी लिया जाये कि वे उसको हार गये थे और आपने उसे दासी बना लिया था, तो भरी सभा में उसके वस्त्र उतारने का अधिकार आपको कैसे मिल गया? क्या आप अपनी दासियों से ऐसा ही व्यवहार करते हैं? क्या इससे पहले आपने अपनी किसी दासी के वस्त्र सार्वजनिक रूप से उतारने की चेष्टा की है? क्या किसी नारी की अपनी कोई मर्यादा नहीं है?’

दुर्योधन के पास कोई उत्तर नहीं था। वह दांत पीसते हुए बैठा रहा।

अब कृष्ण ने सारी राजसभा को धिक्कारा- ‘महान कुरुवंश की इस राजसभा की अपनी कोई मर्यादा है या नहीं? आपकी आंखों के समक्ष एक नारी को निर्वस्त्र किया जाता रहा और आप उसको देखते रहे। क्या यह इस राजसभा के लिए शोभनीय है?’

किसी के मुँह से कोई बोल नहीं फूटा। सब सिर नीचा किये कृष्ण की फटकार सुनते रहे। किसी की कोई प्रतिक्रिया न पाकर कृष्ण ने सीधे पितामह की ओर देखकर कहा- ‘पितामह, आप महान कुरुवंश के उत्तराधिकारी हैं। उसकी मर्यादा की रक्षा करना आपका कर्तव्य था। आपके एक पौत्र ने स्वयंवर की अत्यन्त कड़ी कसौटी पर खरे उतरकर उस महान नारी से विवाह किया था, जो एक महान राजा की पुत्री भी है। क्या उसकी मर्यादा और शील की रक्षा करना आपका कर्तव्य नहीं था? आप क्यों देखते रहे?’

भीष्म का सिर लज्जा से गढ़ा जा रहा था। उन्होंने बोलना तो दूर रहा, कृष्ण की ओर आंखें उठाकर भी देखने का साहस नहीं किया। कृष्ण बोलते गये- ‘पितामह! वह निरीह और विवश नारी बार-बार आपका नाम लेकर आपसे सहायता मांग रही थी, अपनी लज्जा की रक्षा की प्रार्थना कर रही थी। पर आप न जाने किस प्रतिज्ञा के मद में डूबे हुए उसको अनसुनी करते रहे। क्यों?’ भीष्म के पास कोई उत्तर नहीं था।

‘पितामह, आज यदि कुरुवंश के सिर पर विनाश के बादल छाये हुए हैं, तो उसका एक बड़ा उत्तरदायित्व आपका भी है। यदि आपने युवराज और दुःशासन को वह जघन्य कार्य करने से रोक दिया होता, तो शायद आज कुरुवंश विनाश के कगार पर खड़ा न होता। आपने कुरुवंश की रक्षा का व्रत लिया है या उसे विनाश के मुंह में झोंकने का? बोलिए।’ भीष्म को अपने ऊपर इतनी ग्लानि हो रही थी कि उनके मुंह से एक भी शब्द नहीं निकल रहा था।

कृष्ण ने भीष्म को और अधिक लज्जित करना उचित न समझा। अब उन्होंने द्रोणाचार्य को लक्ष्य किया- ‘आचार्य, जब यह जघन्य कार्य किया जा रहा था, तब आप भी इस राजसभा में उपस्थित थे। आपके परम मित्र यज्ञसेन द्रुपद की वह पुत्री आपका नाम लेकर आपसे प्रार्थना कर रही थी, अपना शील बचाने के लिए गिड़गिड़ा रही थी। आप भगवान परशुराम के शिष्य और अजेय धनुर्धर हैं। आपकी इस वीरता का मूल्य क्या दो रोटियों के बराबर ही है? क्या आपने कुछ मुद्राओं के लिए अपना धर्म और विवेक भी बेच दिया है?’

द्रोणाचार्य सिर नीचा किये बैठे रहे।

‘आचार्य, हो सकता है महाराजा द्रुपद से बाद में आपकी शत्रुता हो गयी हो, लेकिन द्रोपदी से तो आपकी कोई शत्रुता नहीं है। वह आपके परमप्रिय शिष्य अर्जुन की ब्याहता पत्नी है और आपने भी उसको अपना आशीर्वाद दिया है। आपके इस आशीर्वाद का क्या मूल्य है, यदि आप भरी सभा में उसका शील अपहरण होते देखते रहे? उसने ऐसा क्या अपराध किया था?’

द्रोणाचार्य कृष्ण की बात सुन रहे थे और अनुभव कर रहे थे कि उन्होंने दायित्वहीनता का कितना बड़ा अपराध कर दिया था। कृष्ण ने फिर उनको धिक्कारा- ‘आचार्य, क्या आप जानते हैं कि आपकी इस चूक का कितना बड़ा मूल्य आपको चुकाना पड़ेगा? आगामी संभावित युद्ध में कुरुवंश तो नष्ट होगा ही, कदाचित आप भी नहीं बच सकेंगे। आपके ऊपर कलंक का ऐसा टीका लग गया है, जो आपके प्राण देने से भी छूटेगा नहीं।’ द्रोणाचार्य का चेहरा लज्जा से लाल हो गया, लेकिन उनके मुंह से एक शब्द नहीं निकला।

सारी राजसभा में सन्नाटा छाया हुआ था। आज तक किसी ने इस राजसभा को इतना नहीं धिक्कारा था, भगवान वेदव्यास ने भी नहीं।

(जारी…)

— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

2 thoughts on “उपन्यास : शान्तिदूत (उन्तालीसवीं कड़ी)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , कृष्ण ने खरी खरी बातें कह कर सभी के मुंह पर तमाचा जड़ दिया , अब वोह जवाब देने लाएक रहे ही नहीं थे . भीशामपिताम्ह द्रोनाचार्यिया जैसे लोग द्रोपती को भरी सभा में बेईज़त होने से रोक नहीं सके , यह कैसे प्रण थे उनके जिनको वोह तोड़ नहीं सके और द्रोपती की रक्षा करने से असमर्थ हो गए . अगर यह सब ना होता तो ना जंग होती और ना वेद्विआस जी को महाभारत लिखने ज़हमत उठानी पड़ती .

    • विजय कुमार सिंघल

      सही कहते हैं आप भाई साहब.

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