उपन्यास : शान्तिदूत (चालीसवीं कड़ी)
अब कृष्ण ने महाराज धृतराष्ट्र की ओर मुख किया। वे अपनी अंधी आंखों की पुतलियों को ऊपर चढ़ाये हुए राजसभा में छाये सन्नाटे की आहट ले रहे थे। कृष्ण ने उनको सम्बोधित करते हुए कहा- ‘महाराज, आप कुरुवंश के महान सम्राटों के उत्तराधिकारी हैं। इतिहास में हस्तिनापुर और भरतवंश का उच्च स्थान है। आपके सिंहासन पर विराजमान होते हुए राजसभा में एक नारी को निर्वस्त्र करने की कोशिश की गयी। क्या ऐसा होने देना आपके लिए उचित था?’
धृतराष्ट्र को आशंका थी कि अब कृष्ण मुझे धिक्कारेंगे। इसलिए मानसिक रूप से वे तैयार थे। लेकिन उनके पास कृष्ण के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था।
कुछ समय धृतराष्ट्र के बोलने की प्रतीक्षा करने के बाद कृष्ण की वाणी फिर राजसभा में गूंजने लगी। ‘महाराज, सिंहासन पर विराजमान महाराज के रूप में आप समस्त कुरुवंश के संरक्षक हैं। आपके आदेश पर ही सम्राट युधिष्ठिर द्यूत खेलने के लिए हस्तिनापुर आये थे। क्या उनके सम्मान की रक्षा करना आपका कर्तव्य नहीं था? क्या अपनी कुलवधू के शील की रक्षा करना आपका दायित्व नहीं था?’
यह कहकर वे कुछ क्षण के लिए रुके और धृतराष्ट्र की ओर देखा कि शायद वे कुछ कहेंगे। परन्तु धृतराष्ट्र के मुँह से कोई शब्द नहीं निकला।
‘महाराज, यह मैं मानता हूँ कि आपने अपने नेत्रों से पांचाली के वस्त्रों का हरण होते नहीं देखा होगा, लेकिन क्या आपके कानों में उसकी चीखें भी नहीं पहुँच रही थीं? वह रो-रोकर बार-बार आपसे अपनी लज्जा की रक्षा की प्रार्थना कर रही थी, परन्तु आप अपने पुत्रों को यह जघन्य कर्म करने से भी नहीं रोक सके, ऐसा क्यों हुआ? क्या आपका राजदंड इतना निर्बल हो गया है कि आपने अपने पुत्रों के मोह में इस महान कुरुवंश को कलंकित होने दिया? आप अपने पूर्वजों को क्या उत्तर देंगे?’
कृष्ण का एक-एक शब्द धृतराष्ट्र के सिर पर हथौड़े की तरह प्रहार कर रहा था। धृतराष्ट्र को कभी भी अपने जीवन में इतना अधिक लज्जित नहीं होना पड़ा था, जितना श्रीकृष्ण उनकी राजसभा में कर रहे थे। उनके मुँह से अस्फुट रूप में ‘केशव! केशव!!’ शब्द निकल रहे थे, जिनको राजसभा में कोई नहीं सुन पा रहा था, केवल उनके निकट खड़े हुए विदुर ही समझ पा रहे थे।
कृष्ण ने धृतराष्ट्र को एक बार फिर लताड़ा- ‘महाराज, मैं जानता हूँ कि भौतिक दृष्टि के अभाव में आपने वह दृश्य नहीं देखा होगा, लेकिन क्या आपके पुत्र-मोह ने आपकी आन्तरिक दृष्टि को भी इतना क्षीण कर दिया है कि आप उचित और अनुचित में विभेद करने में भी समर्थ नहीं हैं? आपके विवेक को यह ग्रहण क्यों लगा है?’
‘महाराज! आप क्यों नहीं समझ पा रहे हैं कि आपकी इस विवेकहीनता के कारण सम्पूर्ण भरतवंश संकट की किस विकट स्थिति में फंस गया है? नियति ने उसके चारों ओर विनाश का जाल बुन दिया है। इस जाल से निकलने का प्रयास आप क्यों नहीं कर रहे हैं? अगर भरतवंश का विनाश हुआ, तो इतिहास आपको इसका सबसे अधिक उत्तरदायी मानेगा, केवल आपको।’
धृतराष्ट्र अब और न सुन सके। मिमियाते हुए स्वर में बोले- ‘क्षमा करें, केशव, क्षमा करें। मुझसे भूल हो गयी।’
क्षमा शब्द सुनते ही कृष्ण की भौंहें तन गयीं- ‘क्षमा? मैं कौन होता हूँ, महाराज, आपको क्षमा करने वाला? अगर आपको क्षमा ही मांगनी है तो उसी सती नारी से मांगिये, जिसकी लज्जा का हरण आपकी इस राजसभा में किया गया था। मैं तो मात्र पांडवों का प्रतिनिधि हूँ। अगर आपको वास्तव में उस कृत्य पर लज्जा है और उसका प्रायश्चित करना चाहते हैं, तो इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लीजिए जो पांडवों ने भेजा है और उनको बुलाकर इन्द्रप्रस्थ सौंप दीजिए। इसके अलावा महाविनाश से बचने का और कोई मार्ग नहीं है। भरतवंश को विनाश से और स्वयं को इसके अपयश से बचाना अब आपके ही हाथ में है, महाराज !’ यह कहकर कृष्ण ने समस्त राजसभा और मुख्य रूप से दुर्योधन पर दृष्टि डाली।
बाध्य होकर धृतराष्ट्र ने दुर्योधन की ओर मुख करके कहा- ‘इस प्रस्ताव पर विचार कर लो, पुत्र!’
धृतराष्ट्र के मुंह से यह वाक्य निकलते ही दुर्योधन का चेहरा तमतमा गया और गुर्राकर बोला- ‘मैं इस पर पहले ही विचार कर चुका हूँ, महाराज और मैंने इसे अस्वीकार कर दिया है।’
पितामह भीष्म अभी तक चुपचाप बैठे कृष्ण की बातें सुन रहे थे। अब वे चुप न रह सके और खड़े होकर बोले- ‘युवराज, वासुदेव कृष्ण ने जो कहा है उसका एक-एक शब्द सत्य है। हमने पांडवों के साथ न्याय नहीं किया है और पांचाली के साथ तो घोर अन्याय किया गया है। वासुदेव ने हमें प्रायश्चित का एक सम्मानजनक मार्ग सुझाया है, उसे स्वीकार कर लो, पुत्र! अन्यथा महाविनाशकारी युद्ध होगा, जिसमें कुछ नहीं बचेगा।’
‘पितामह, हमने किसी के साथ कोई अन्याय नहीं किया। अन्याय तो प्रारम्भ से ही मेरे साथ किया गया है। पांडवों का प्रस्ताव मुझे स्वीकार नहीं है। मैं युद्ध से नहीं डरता। यदि आपको युद्ध से डर लगता है, तो आप हस्तिनापुर छोड़ने और चाहें तो पांडवों के पक्ष में जाने के लिए स्वतंत्र हैं।’
दुर्योधन की यह दो-टूक बात सुनकर भीष्म हताश होकर बैठ गये। अगर वे आजीवन हस्तिनापुर के साथ रहने और उसकी रक्षा करने के वचन से बंधे हुए न होते, तो शायद उसी समय सभाभवन और हस्तिनापुर भी छोड़कर चले जाते। लेकिन अब उनको उस गलत समय पर की गयी अनुचित प्रतिज्ञा के पालन के लिए इस अन्यायी दुर्योधन का साथ देना ही होगा और शायद प्रायश्चित के रूप में अपने प्राण भी देने पड़ें। ऐसा सोचकर वे मौन होकर बैठ गये।
पितामह के बैठते ही द्रोणाचार्य खड़े हो गये और बोले- ‘युवराज, मैं कृष्ण के प्रस्ताव और भीष्म की सम्मति से सहमत हूँ। मेरा यह मानना है कि निरर्थक युद्ध से कोई लाभ नहीं है और हमें इन्द्रप्रस्थ पांडवों को देकर शान्ति स्थापित करके सम्पूर्ण भारतवर्ष को विनाश से बचा लेना चाहिए। इस प्रस्ताव पर फिर से विचार कीजिए, युवराज!’
द्रोणाचार्य के इतना कहते ही दुर्योधन खड़ा हो गया और उनकी तरफ व्यंग्यात्मक स्वर में बोला- ‘वाह, आचार्य! इसी बल पर आप धनुर्धर बने फिरते हैं? अब जब पहली बार हस्तिनापुर के लिए युद्ध करने का समय आ रहा है, तो आप हमें शान्ति का उपदेश दे रहे हैं। अगर आपको युद्ध से इतना ही भय लगता है, तो आप जाइये, जाकर अपनी पर्णकुटी में सो जाइए। मैं युद्ध की तैयारी केवल आपके बल पर नहीं कर रहा हूँ। मैं और मेरे मित्र अंगराज कर्ण समस्त पांडवों और उनकी सेना को धूल चटाने में समर्थ हैं।’
दुर्योधन के इतना कहने पर द्रोणाचार्य बोले- ‘तुम्हारे विवेक पर अहंकार ने पर्दा डाल दिया है, युवराज! मैं युद्ध से नहीं डरता। मैंने कुरुवंश का अन्न खाया है और अवसर आने पर मैं उसके लिए प्राण भी विसर्जित कर दूँगा, लेकिन यह युद्ध विनाशकारी है। इससे तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा। सबके साथ तुम स्वयं भी नष्ट हो जाओगे।’ यह कहकर द्रोणाचार्य मौन होकर अपने आसन पर बैठ गये।
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
रोचक जानकारी से ओत प्रोत आपका सुंदर सृजन
आभार, बहिन जी. बहुत दिन से इस उपन्यास को लिखने की सोच रहा था. आप सबके प्रोत्साहन से यह मूर्त रूप ले सका है.
विजय भाई , कृष्ण जी ने जो भी बातें कहीं वोह झूठ तो था नहीं , सच सुनना सब से मुश्किल हो रहा था , ख़ास कर ध्रित्राश्टर को जो बजुर्ग होने के नाते कुछ नहीं कर पाया . एक बात तो साफ़ थी कि राज सभा में बैठे ज़िआदातर लोग भीतर से पांडवों के साथ सहानभूति रखते थे . जब दुर्योधन जैसे अहंकारी ने दरोनाचार्यिया जैसे गुरु जन को नहीं बक्शा तो अब लड़ाई को रोक सकना किसी के भी बस में नहीं रह गिया था . विजय भाई आप ने जो इस इत्हासिक नावल का नाम शान्ति दूत रखा है बिलकुल ठीक है . जैसे आप लिख रहे हैं , लिखने का ढंग बहुत पसंद आया , आगे इंतज़ार है …..
प्रणाम, भाई साहब. बहुत बहुत आभार. अभी आगे देखिये कृष्ण क्या करते हैं. मुझे भी लिखने में आनंद आ रहा है.