उपन्यास : शान्तिदूत (चवालीसवीं कड़ी)
जब विदुर दुर्योधन को राजसभा में वापस लेकर आये, तब भी वह क्रोध से कांप रहा था। विदुर ने धृतराष्ट्र को सूचित किया कि युवराज आ गये हैं। इस पर धृतराष्ट्र बोले- ‘वत्स दुर्योधन, तुम रोष मत करो। वासुदेव के प्रस्ताव को स्वीकार कर लो, इसी में हम सबकी भलाई है। पांडवों को केवल पांच गांव देने से तुम्हारी कोई हानि नहीं होगी।’
परन्तु दुर्योधन पहले ही इस प्रस्ताव को नकार चुका था। इसका कारण स्पष्ट था- पहले उसने पांडवों को खांडवप्रस्थ का घनघोर जंगल दिया था, तो वहां पांडवों ने इन्द्रप्रस्थ जैसा वैभवशाली नगर बना दिया था, जिसके सामने हस्तिनापुर की चमक भी फीकी पड़ गयी थी। अब अगर पांडवों को पांच बसे हुए गांव मिल गये, तो पता नहीं वे क्या कर देंगे और अपनी शक्ति कितनी बढ़ा लेंगे। पांडवों को इसका अवसर वह देना नहीं चाहता था। वैसे भी उसे पांडवों को अस्तित्व स्वीकार ही नहीं था। वह किसी भी मूल्य पर पांडवों को सदा के लिए नष्ट कर देना चाहता था, ताकि उसका साम्राज्य सुरक्षित रहे।
इसलिए वह बोला- ‘महाराज, मैं इस प्रस्ताव को पहले ही अस्वीकार कर चुका हूँ। इस पर पुनः विचार करने का कोई प्रश्न नहीं है। आप कृष्ण की बातों में मत आइये। यह पांडवों का सहायक है और हमें हानि पहुंचाने के लिए शान्ति प्रस्ताव का ढोंग कर रहा है।’
वासुदेव कृष्ण के प्रति दुर्योधन के इस असभ्यतापूर्ण वाक्य को सुनकर सारी राजसभा सन्न रह गयी। पितामह भीष्म और विदुर को भी क्रोध चढ़ आया। भीष्म ने कहा- ‘दुर्योधन, तुम जानते हो कि तुम क्या कह रहे हो? वासुदेव के प्रति अशिष्टतापूर्ण वाक्यों का प्रयोग करके तुम बहुत बड़ी गलती कर रहे हो।’
विदुर ने भी यही कहा- ‘युवराज, वासुदेव कृष्ण हमारे सम्माननीय अतिथि हैं। उनके प्रति असभ्य व्यवहार तुम्हें शोभा नहीं देता।’
लेकिन दुर्योधन को इस आलोचना की कोई चिन्ता नहीं थी। और भी अधिक उद्दंड स्वर में वह बोला- ‘मैं जानता हूं कि आप सबको इस ग्वाले ने अपने वश में कर रखा है। इसने आपको यह सलाह दी है कि आप मुझे बंदी बना लें। लेकिन ऐसा होना तो दूर रहा, मैं इस ग्वाले को ही बन्दी बना सकता हूं।’ यह कहकर उसने घमंड के साथ गर्दन उठाकर कृष्ण की ओर देखा।
कृष्ण अभी तक इस वार्तालाप को मौन होकर सुन रहे थे। लेकिन अब वे चुप न रह सके। सीधे दुर्योधन को लक्ष्य करके बोले- ‘दुर्योधन, अगर तुमने ऐसा करने का कोई प्रयास भी किया, तो उसका परिणाम सोच लेना। वह तुम्हारे जीवन की अन्तिम भूल होगी। यह मत समझो कि मैं निःशस्त्र हूँ। क्या तुम्हें याद है कि राजसूय यज्ञ के समय शिशुपाल का क्या हाल हुआ था। जिस चक्र ने शिशुपाल का शिरोच्छेद किया था, वह इस समय भी मेरे पास है और उसे फिर किसी अन्य का सिर काटने में कोई संकोच नहीं होगा।’
कृष्ण की यह बात सुनकर सारे कौरवों के साथ दुर्योधन भी घबरा गया। लेकिन उसने इस संभावना पर पहले ही विचार कर लिया था और ऐसे पाश फेंकने वाले बुला रखे थे, जो कृष्ण का हाथ ऊपर भी नहीं उठने देते और कृष्ण को पलक झपकते ही बांध लेते। परन्तु कृष्ण को उनकी कोई चिन्ता नहीं थी, क्योंकि सात्यकि इस संभावना के प्रति उनको पहले ही संकेत देकर सावधान कर चुका था और पाश फेंकने वाले उन दोनों व्यक्तियों को भी कृष्ण ने देख लिया था। इसलिए वे उन दोनों व्यक्तियों को अपने निकट भी नहीं आने दे सकते थे।
कृष्ण ने फिर सबको सुनाते हुए ऊंचे स्वर में कहा- ‘दुर्योधन, मुझे बंदी बनाने का कोई भी प्रयत्न करने से पहले यह मत भूलना कि मेरी एक अक्षौहिणी सेना यहां तुम्हारे पक्ष में लड़ने के लिए आयी हुई है। अगर उसके पास यह समाचार पहुंचेगा कि तुमने राजसभा में शान्ति प्रस्ताव लेकर आने पर मेरे साथ कैसा व्यवहार किया, तो प्रतिक्रिया में वह हस्तिनापुर की सड़कों पर क्या तांडव करेगी, इस बात पर अवश्य विचार कर लेना।’
कृष्ण द्वारा दी गयी इस स्पष्ट धमकी को सुनकर सारी राजसभा कांप उठी। भीष्म ने उठकर कहा- ‘महाराज, तुम्हारा यह पुत्र उद्दंड, असभ्य और अशिष्ट ही नहीं, मूर्ख भी है। इसने अपनी मूर्खता से युद्ध से पहले ही, बल्कि युद्ध के बिना ही हस्तिनापुर का सर्वनाश करा दिया होता।’
धृतराष्ट्र ने भीष्म की इस चेतावनी को समझा और दुर्योधन की भर्त्सना करते हुए बोले- ‘दुर्योधन, लगता है कि तुम्हारे मित्रों ने तुम्हारी बुद्धि को कुंठित कर दिया है। तुम्हारे मस्तिष्क में वासुदेव के साथ ऐसा व्यवहार करने की बात आयी ही क्यों?’
फिर कृष्ण का क्रोध शान्त करने के लिए बोले- ‘वासुदेव, मेरे पुत्र को क्षमा कीजिए। आप क्रोध मत कीजिए। आपके साथ ऐसा व्यवहार कोई नहीं कर सकता। आप हमारे सम्माननीय अतिथि हैं, आप रोष मत कीजिए।’
कृष्ण को उस निरीह वृद्ध राजा की चाटुकारितापूर्ण बातों में कोई रुचि नहीं थी। लेकिन अब क्रोध करने से भी कोई लाभ नहीं था। वे समझ गये कि यहां मेरा आना निष्फल गया। युद्ध रोकने की अब कोई संभावना नहीं रह गयी है। इसलिए अपनी यात्रा के समापन की भूमिका बनाते हुए बोले- ‘महाराज, मैं समझ रहा हूँ कि यहां मेरा आना व्यर्थ रहा। मैंने पांडवों की ओर से न्यूनतम मांग भी आपके समक्ष रखी, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि आपमें अपने युवराज को नियंत्रित करने की शक्ति नहीं रह गयी है। वह युद्ध के लिए लालायित है। विनाश के बादल हस्तिनापुर के सिर पर मंडरा रहे हैं, जिनको आप नहीं देख पा रहे हैं। अब यदि आप युद्ध ही चाहते हैं, तो युद्ध ही सही। आपकी यह इच्छा पूर्ण होगी।
‘महाराज, अब मैं आपसे जाने की अनुमति चाहता हूँ। मैं कल प्रातः ही यहां से उपप्लव्य नगर को प्रस्थान करूंगा।’ यह कहकर कृष्ण ने अपने दोनों हाथ जोड़कर महाराज धृतराष्ट्र को प्रणाम किया। फिर वे सधे हुए पगों से सावधानीपूर्वक दोनों ओर देखते हुए राजसभा से बाहर निकल गये। दुर्योधन के बुलाये हुए दोनों पाश फेंकने वाले व्यक्ति उसके संकेत की प्रतीक्षा ही करते रह गये, क्योंकि कृष्ण की धमकी के बाद दुर्योधन में कुछ करने की हिम्मत नहीं रह गयी थी।
राजसभा से बाहर निकलकर कृष्ण सात्यकि को साथ लेकर अपने विश्राम स्थल पर पहुँच गये, जो वहां से अधिक दूर नहीं था।
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
विजय भाई , अब कृष्ण के कहने को कुछ बचा ही नहीं था , दुर्योधन अँधा हो चुक्का था , जब भीषम पितामह विदुर जैसे अनुभवी लोगों की नहीं सुनी तो और कुछ कहना तो बेकार ही था . लेकिन एक बात तो साफ़ हो गई कि इतहास कभी भी पांडवों और कृष्ण को दोषी नहीं ठेहरा सकता था .
सही कहा भाईसाहब. इसी दोष से बचने के लिए ही तो कृष्ण दूत बनकर आये थे. यह बात उपन्यास के शुरू में ही स्पष्ट कर दी है. अब उपन्यास समापन की ओर है, लेकिन अभी कृष्ण का एक और कार्य बाकी है. अगली कड़ी में पढ़ना.