“पतझड़ “
“पतझड़ ”
दूर बहुत दूर है वो प्यारा गाँव
साथ चलती है बबूल की छाँव
सूख गयी है स्नेह की नदी
रेत में धँस धँस जाते है पाँव
कितना प्राचीन है वो मंदिर
सीढ़ियाँ कहती है लौट आव
अमराई में कोयल उदास है
ये मौसम लाएगा बदलाव
हरे पत्तों के दिन लौट आएँगें
पीले पत्तों का होगा तब अभाव
जिंदगी की रफ़्तार बहुत तेज है
खुद से मिलवाता है यह ठहराव
आज मेरा साया भी मेरे साथ नहीं है
तन्हा कर देता है मधुमास से लगाव
किशोर कुमार खोरेंद्र
अच्छा गीत, किशोर जी.