शाम
शाम…
शाम गुमनाम है,
रात बदनाम है।
फिर भी है इस गली मेँ एक आशियां,
जहाँ बाकी हैँ अब भी आरजू के निशां,
खुबसूरत है दिलकश है जानशीँ है मगर,
इसपर भी काफ़िरी का इल्ज़ाम है।
शाम…
शाम गुमनाम है,
रात बदनाम है।
फिर भी है इस गली मेँ एक आशियां,
जहाँ बाकी हैँ अब भी आरजू के निशां,
खुबसूरत है दिलकश है जानशीँ है मगर,
इसपर भी काफ़िरी का इल्ज़ाम है।
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वाह ! वाह !!