धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

** शरद पूर्णिमा एवं महारासलीला **

सच्चिदानंदरुपायविश्वोत्पत्यादीहेतवे
तापत्यविनाशाय श्री कृष्णाये वयंमह

कृष्ण स्वयं प्रेम हैं, “आकर्षणम इति कृष्णम” अर्थात जो आकर्षण है वही कृष्ण हैं, और आकर्षण प्रेम की पहली सीढ़ी है!
आज शरद पूर्णिमा महोत्सव है, शरद रात में आज चंद्रमा अपनी सभी १६ कलाओं से परिपूर्ण होकर हमारे आँगन को प्रकाशमान कर रहा है, वास्तव में ये प्रेम का उत्सव है, प्रकाश का उत्सव है! आज ही के दिन भगवान् श्री कृष्ण ने गोपियों को दर्शन देकर महारास लीला की थी, भगवान् श्री कृष्ण दिव्य ईश्वरीय लीलाओं में से एक है “महारास”!
आज के सामाजिक जीवन में रासलीला का बड़ा ही गलत अर्थ निकाला जाता है, बड़े ही कुत्सित और दुराग्रही सरीखे दिमाग वाले इसे कामक्रीड़ा से जोडकर देखते हैं, किन्तु वास्तव में महारास बड़ा ही पवित्र और दिव्य उत्सव है…गोपियों ने बड़ी तन्मयता से माँ जगजननी जगदम्बे का ९ दिन व्रत रखकर नौवे दिन जब माँ की आराधना की, तब शक्ति स्वरुप ने उनकी पूजा से प्रसन्न होकर मनवांछित वर मांगने को कहा, सभी गोपियों के मन में केवल एक बार अपने प्राणों से प्यारे कन्हैया को प्राप्त करने की इच्छा थी, उन आत्माओं के परमात्म स्वरुप श्री कृष्ण के दर्शन और प्रभु के दिव्य प्रेमानंद को प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की, जो कि माँ शक्ति पहले से जानती थीं, उन्होंने राधारानी सहित सभी गोपियों को वरदान दिया कि ‘जगदीश्वर श्री कृष्ण शरद पूर्णिमा की रात को जब चन्द्रमा आकाश में अपनी सभी १६ कलाओं से युक्त होकर सुंदर छटा बिखेर रहा होगा, तब प्रकट होकर सभी को दर्शन देंगे और ऐसी दिव्य प्रेमलीला करेंगे कि तुम सब उस परमानन्द को प्राप्त करोगी…’ माता के वरदान देते ही गोपियों में शरद रात्रि और पूर्णावतार के दर्शनों की ऐसी उत्कंठा जागी कि मानो बस उसी रात की प्रतीक्षा के लिए सारा जीवन अर्पण कर दिया हो, ना खाने में मन लगता, ना किसी काम में, ना रात को नींद ही आती ना दिनभर ह्रदय को चैन ही मिलता, मन में बस एक ही नाम …कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण, और बस उसी में खोयी रहती, ऐसा मन रम गया कृष्ण में कि फिर ना कुछ जानने समझने की इच्छा आकांक्षा रही ना ही कुछ अन्य ही प्रयोजन…बस शरद रात की प्रतीक्षा, गोपियों की प्रतीक्षा और तप के बाद…शरद पूर्णिमा की रात्रि में सुमधुर बंसी की धुन हवा के साथ साथ गोपियों के कानो पर पड़ी, बस फिर किसी सुध थी मन में अपने प्रीतम को पाने की ऐसी उत्कंठा और वो भी ऐसा वैसा प्रेम नहीं भगवदभाव से परिपूर्ण प्रेम, सारी सखियाँ सुध बुध खोकर बस उस बंसी की धुन के के पीछे पीछे चलती रहीं, आगे बढती रही, ना तन की सुध ना वसन की, मन तो बसा ऐसा रमा है कि कुछ और दिखाई ही नही देता था, राधारानी भी बस इसी तरह बांसुरी की मधुर तान का पीछा करते करते मधुवन की तरफ बढ़ने लगीं, राह पर नाग पड़ा है किन्तु राधा जी को इतनी भी सुध नहीं वे नाग को देखे बिना ही आगे बढ़ी चली जा रही हैं और इसी तरह बेसुध सारी सखियाँ कृष्ण प्रेमरस में डूबी हुयी मधुवन में एकत्रित हो गयीं, किन्तु कृष्ण वहां नहीं हैं और बांसुरी की मधुर ध्वनि निरंतर गोपियों के कानों में पड रही है, ये ऐसा समय है जब भक्त के विश्वास की परीक्षा है, दर्शन ऐसे ही सुलभ नहीं हैं, मन, वचन, कर्म से केवल ईश्वर के प्रति समर्पित होने पर ही परमात्मा प्राप्त होते हैं, बड़े ही करुणा के स्वर यहाँ जागे और गोपियाँ बड़ी आतुरता से अपने कान्हा की राह तक रही हैं, ईश्वर की प्राप्ति के लिए धैर्य भी बड़ा जरुरी है, श्रीमदभगवद कथा में आता है “जब श्री कृष्ण महारास के दरमियान अप्रकट(दृष्टि ओझल ,अगोचर ) हो गए गोपियाँ प्रलाप करते हुए महाभाव को प्राप्त हुईं।“ जब जगतपति ने निश्चित कर लिया कि गोपियाँ बड़े ही प्रेमभाव से और केवल उनके ही प्रति समर्पित होकर उनसे निवेदन कर रही हैं, तब चंद्रमा के समान अपनी १६ कलाओं से युक्त पूर्णावतार श्री कृष्ण ने गोपियों को दर्शन दिए, उनके प्रकट होते ही सारे वातावरण में एक दिव्य आकर्षण उदित हो गया, एक परम दिव्य तत्व मानो वहां विराजमान हो गया, और चारों ओर केवल आनंद ही आनंद हो आया…. कृष्ण प्रकट तो होते हैं किन्तु वे आदिशक्ति माँ राधारानी के संग नृत्य कर रहे हैं और गोपियों के मन ने ये लालसा है कि उन्हें भी उनका कृष्ण मिले, सभी की इच्छाओं को समझकर योगेश्वर ने अपनी दिव्य लीला का शुभारम्भ किया, ऐसे प्रकटे की सभी गोपियों को लगने लगा कि उनके प्राण प्रीतम उनके ही पास हैं, जैसे सूर्य के आगे घड़ों में जल भरकर रख देने पर जैसे प्रत्येक घड़े में सूर्य का प्रतिबिम्ब बनता है और घड़े को लगता है कि यही उसका सूर्य है ठीक उसी तरह ये वही परमानन्द है जिसे प्राप्त करने गोपियों ने बड़ी तपस्या की थी, कहते हैं गोपियों के रूप में बड़े बड़े ऋषि मुनि भी ईश्वरीय आनन्द को प्राप्त करने धरती पर आये और सभी ने उस परमतत्व को अपनी आत्मा में समाहित होते पाया! चारों दिशाओं में केवल परमानन्द ही छा गया है, फूलों में उल्लास है, तारे नृत्य कर रहे हैं, आध्यात्मिक चेतना जागृत हो गयी है, चारों ओर केवल प्रेम ही प्रेम है, सभी युगल देखने पर मानो राधा और कृष्ण से ही दिखते हैं, आत्मा का परमात्मा से यही मिलन मधुमास है, यही महारास है!!!

शरद पूर्णिमा के इस पावन पर्व पर प्रेमावतार श्री कृष्ण और शक्ति स्वरुप राधे रानी का स्मरण कर हम भी गाते हैं…

हे भक्तविंदो के प्राण प्यारे
नमामि राधे नमामि कृष्णं!!

_____________सौरभ कुमार दुबे

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

One thought on “** शरद पूर्णिमा एवं महारासलीला **

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा लेख.

Comments are closed.