“तटस्थ “
“तटस्थ ”
मैं तुमसे कभी मिल नहीं सकता हूँ
न तुमसे कभी कुछ कह सकता हूँ
मुझे तेरा घर मंदिर सा लगता है
जैसे ही गली में मैं पांव रखता हूँ
बर्फ सी जमी तन्हाई कहीं पिघल न जाए
आजकल फ़ासिला कम करने से डरता हूँ
अतीत के पन्नों में सुर्ख पंखुरियाँ दबी हुई है
लोग कहते है मै गुलाब से ज्यादा महकता हूँ
तुम्हें तो तटस्थ रहने की आदत है
अपनी बेबसी पर रोता हूँ हँसता हूँ
किशोर कुमार खोरेन्द्र
sundar srijan
bahut khub
बढ़िया !
बहुत अच्छी कविता भाई साहिब .