।।यूरेका।।
आसमान से हर शहर वैसा ही दिखता है
जैसे हर शहरी आदमी आमतौर पर लगता है सभ्य
नदियाँ दिखती हैं
मिट्टी पर खींची गदली रेखाओं सी
और पहाड़ियां छोटी छोटी
कुकुरमुत्ते की छतरियों जैसी
ऐसे में सबसे ज्यादा चमकते हैं
जंगलों के बीच छोटे छोटे तालाब
जहाँ आदमी पानी पीता है चौपाया हो कर
जिनमें सूरज देखता है
अपना कांपता हुआ अक्स!
आसमान से बहुत अनुशासित सी लगती हैं
शहर की इमारतें
बिलकुल नहीं दिखाई देतीं
ग्रामीणों की छोटी छोटी झौंपडियां
बीमार औरतें, थके हुए पुरुष
और रोते रोते, भूख भूल चुके बच्चे
वे अभागे रास्ते भी
जिनमें पग पग पर दुःख छिपा रहता है!
आसमान से आपको नहीं दिखाई देगा
हर पल छले जा रहे आदमी का आक्रोश
उसका सुलगता चेहरा
और सरकार की असहायता
उसके लिए आपको निकलना पड़ेगा
शहर से बहुत दूर किसी संकरे से रास्ते पर
जिसके गड्ढों में से होकर निकलेगी आपकी कार
हर पल आपको आएगा खयाल
कि कहीं कोई बारूदी सुरंग न बिछी हो!
पेड़ों के बीच से मुश्किल से दिखेगा सूरज
भागता हुआ रास्ता काट जाएगा कोई नर कंकाल
लकड़ियाँ बीनती मिलेगी कोई बीमार सी औरत
आपको याद आएँगे
नाईजेरिया, इथोपिया के अकाल के चित्र
आपके मोबाईल फोन में नहीं मिलेगा नेटवर्क!
अचानक आप चिल्लाएँगे यूरेका
उडीसा, बंगाल हो या झारखंड
हाथ की रोटियाँ
कब तक बिल्लियाँ बंटवाएंगी बंदरों से
कोई शौक़ से नहीं होता नक्सली।
————–राजेश्वर वशिष्ठ
बहुत अच्छी और सोचने को बाध्य करती कविता.