शुभ-स्वागतम् लक्ष्मी
मानव जीवन के चार पुरूषार्थों में से एक है-अर्थ अर्थात् धन अर्थात् लक्ष्मी। पर एक प्रकार का धन और होता है-काला धन। चैंकिए मत! लक्ष्मी काली नहीं होती, धन काला होता है। लक्ष्मीपति काले होते हैं। बड़ी अजी़ब बात है भाई-लक्ष्मी का लिंग क्या बदला, रूप भी बदल गया? मेरी समझ में नहीं आता कि ये धन काला कैसे हो जाता है? चमचम-चमकदार खनखनाते चाँदी के कलदार हैं, हरे-नीले, लाल-लाल नोट हैं, फिर भी धन है कि काला हो गया!! क्या रहस्यवाद है? कबीरबाबा ने सच ही कहा है-माया महाठगिनी हम जानी! काला सिक्का नहीं चलता, काला धन दौड़ता है।
कबीर महान थे। अनपढ़ थे पर, समझदार। हम ठहरे पढें-लिखे मूढ़मती। बैंक के मेनेजर के पास पहुँचे, कहा-“प्रसाद जी थोड़े से कालेधन का प्रसाद हमें भी दीजिए। देखें काला धन कैसा होता है? जिन्दगी भर अपनी काली सूरत देखकर उब गये हैंे।” वे बोले-“ शरद जी, इतने बड़े हो गये पर आपका छिछोरापन नहीं गया अब तक! मज़ाक करते हो?” मेरे बार-बार कालाधन मांगने पर उन्होंने समझाया- “देखिये, कालाधन मांगते नहीं, कमाते भी नहीं। वह आता है। लक्ष्मी कमाई जाती है।” मैंने पूछा-“कैसे आता है?” प्रसाद जी झुंझला गये-“अरे भैया! वह अपने आप आता है! उल्टे रास्ते से। आप ठहरे मास्टर आदमी, घर जाइए। ये कालाधन कमाना आपके बूते का नहीं है।”
मैंने कहा-“भैया, मैं सीधे रास्ते चलनेवाला आदमी हूँ। नाक नीची या टेढ़ी भले हो जाए पर चलता सीध में हूँ। ये उल्टे रास्ते का दर्शन क्या है? प्रभु, मैंने आजतक पैदल चलते समय चींटी को भी नहीं रौंदा। पहले उसे साइड देता हूँ फिर आगे बढ़ता हूँ। ट्रकवालों की तरह नहीं कि कुत्ते या इंसान को न पहचान सकूँ। यातायात के नियमों का पालन करनेवाला आदर्श भारतीय हूँ।” वे व्यंग्य भरी मुस्कान से मेरे अंदर के व्यंग्यकार पर व्यंग्य करते हुए बोले-“क्या आप सचमुच भारतीय हैं?” मेरी राष्ट्रभक्ति पर प्रश्न चिह्न? मैं तिलमिला उठा-“क्यों, यातायात के नियमों को जानना राष्ट्रद्रोह है क्या?” वे बोले-शरद जी, यातायात के नियमों को तो इस देश की ट्रेफिक पुलिस भी ठीक से नहीं जानती। और दूसरी बात कालेधन के संदर्भ में आपका अज्ञान, आपकी राष्ट्रीयता के प्रति संदेह उत्पन्न करता है। भारतीय और कालेधन न जानने की बात कुछ बात हजम नहीं होती।” मैं ठहरा कलम का योद्धा, उनके धन-दर्शन के सामने पराजित होना पड़ा।
हे! लक्ष्मीमाता!! ज़्ारा संभल कर आना दीप-पर्व पर। मैंने तुम्हें सदा सुन्दर, सौम्य और गोरे रूप में देखा है। तुम भले ही काले विष्णु की पद सेवा करती हो, पर मैंने सदा तुम्हारा उज्ज्वल रूप ही निहारा है। इस देश के लोग मायावी हैं। तुम्हें सागर मंथन के पष्चात् विष्णु के चरणों में अर्पित किया गया था। पर इस देश के मायावी अब ज्ञान के साथ विज्ञान के चमत्कार भी जानते हैं। ये तुम्हारा लिंग ही नहीं रूप भी बदल देंगे। तुम इन मायावी की तिजोरियों में काला धन बनाकर कैद कर ली जाओगी, और सदा के लिए सात समंदर पार के विदेशी बैंकों में कैद कर दी जाओगी।
इसलिए, हे माँ! इन मायावियों की बुरी नज़र से बचकर मेरी मातृभूमि पर बरसो। खेतों-खलिहानों और झोपड़ियों पर लक्ष्मी बनकर बरसो। धन-लक्ष्मी बनकर बरसो। अपना रूप न बदलने दो। मेरे भारत को तुम्हारा काला नहीं, गोरा रूप चाहिए। दीप-पर्व पर तुम्हारा स्वागत है-शुभ-स्वागतम् लक्ष्मी!!
बहुत करारा और सामयिक व्यंग्य!
शरद भाई , विअंघ कुछ करारा लेकिन स्वादिष्ट लगा .
आदरणीय भामरा जी सादर चरण स्पर्श। आप सदैव मेरी रचनाओं की प्रशंसा कर मुझे उर्जावान बना देते हैं और मैं आपको जवाब नहीं दे पाता था। आज ही आदरणी सिंघल जी ने जवाब भेजने की विधि से मुझे परिचित कराया हैं आगे से कभी ऐसी गलती नहीं होगी। आपके आशीर्वाद का सदा आकांक्षी रहूंगा। आज दीपावली के पर्व पर अपने इस अपरिचित अनुज की शुभकामनाएं स्वीकारिए। कोटिशः आभार।