एक चेहरा परिचित सा
रेत पर
पद-चिन्ह
छोड़ जाओ
कुछ दूर चल लूंगा
लहरों को
अपना नाम -पता
बता जाओ
इसी धरती मे रहता हूँ
तुम्हें
ढूंढ़ लूँगा
छांव मेँ
बैठी रह गयी है
तुम्हारी परछाई
बैठ कर धुप सा
तुम्हें..निर्निमेष
निहार लूंगा
अनगिनत ,अनन्त सितारें
जड़े है
तेरे आँचल मे
जल बनकर उसे
नदी सा बिछा लूँगा
तुम्हारे प्रतिबिम्ब
को तुम मानकर
तुम्हें
न देख पाने का दर्द भुला लूँगा
मालूम है
फूल बनकर
तुम्ही खिली हो
मंजिल हो मगर
राह मे मेरे
पगडंडियों सा
तुम्ही आ मिली हो
तुम्हारी बांहों के
अ -दृश्य घेरे से
घिरा हुआ होकर भी
तलाशता हूँ
मै
न जाने क्यों
एक चेहरा परिचित सा
तुम्हारा
किशोर कुमार खोरेन्द्र