कविता

खुश हैं कि जैसे जग में

 
खुश हैं कि जैसे जग में मिला सभी कुछ हुआ;
नज़रों की नज़्म सुनके, खुलासा था कुछ हुआ.
 
रंग लव पे रंग लाए, खिला मन कमल हुआ; 
बेफिक्र चाल चलके, मंजिलों का लुफ्त पा.
दौलत है बेहिसाब, चाह का हिसाब ना; 
ना चाहिए ख़िताब, कोई खिलौना भी ना. 
 
मन मिला है उसी से, गिला किसी से कहाँ; 
पग झूमते चले हैं, रोशनी भी कम कहाँ. 
हर रूह रही उसमे, रूहानी मिजाज़ पा;
अल्लाह के जिगर से जुदा, ‘मधु’ कब हुआ. 
 
(रचना दि. १६ अक्तूबर, २०१४)

3 thoughts on “खुश हैं कि जैसे जग में

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    कुछ समझ में नहीं आया कि आखिर आप कहना किया चाह रहे हैं , मुआफ कर देना .

    • विजय कुमार सिंघल

      यही मैं सोच रहा हूँ, भाई साहब.

  • विजय कुमार सिंघल

    कविता अच्छी है, पर उसका भाव समझ में कम आता है.

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