खुश हैं कि जैसे जग में
खुश हैं कि जैसे जग में मिला सभी कुछ हुआ;
नज़रों की नज़्म सुनके, खुलासा था कुछ हुआ.
रंग लव पे रंग लाए, खिला मन कमल हुआ;
बेफिक्र चाल चलके, मंजिलों का लुफ्त पा.
दौलत है बेहिसाब, चाह का हिसाब ना;
ना चाहिए ख़िताब, कोई खिलौना भी ना.
मन मिला है उसी से, गिला किसी से कहाँ;
पग झूमते चले हैं, रोशनी भी कम कहाँ.
हर रूह रही उसमे, रूहानी मिजाज़ पा;
अल्लाह के जिगर से जुदा, ‘मधु’ कब हुआ.
(रचना दि. १६ अक्तूबर, २०१४)
कुछ समझ में नहीं आया कि आखिर आप कहना किया चाह रहे हैं , मुआफ कर देना .
यही मैं सोच रहा हूँ, भाई साहब.
कविता अच्छी है, पर उसका भाव समझ में कम आता है.