एकाकी
घाटी के
मील के पत्थर पर
बैठा हूँ मैं एकाकी
लौट न आने वाला
सूना पथ
है मेरा साथी
उड़ कर मुझ तक
पहुँच रहे
सतरंगी पत्ते
लगते हैं मुझे
जैसे हो
वे प्रेम के पाती
लगता मानो कोइ
आ रहा है समीप
जब जब
वृक्षों से छनकर
सुनहरी किरणों की बौछारें
मुझ तक हैं आती
आकाश से
हो रही है बूंदा बाँदी
यहाँ कोई नहीं
सिवा खामोशी के
जितना रो लूँ
कौन
देखने वाला है
यहाँ
मेरी आँखो से
बहता पानीी
घाटी के
मील के पत्थर पर
बैठा हूँ मैं एकाकी
किशोर कुमार खोरेंद्र
अच्छी कविता, किशोर जी.
shukriya vijay ji
बहुत अच्छी कविता लगी . धन्यवाद .
shukriya gurmel ji