कहाँ आधार जीवन का
कहाँ आधार जीवन का, कहाँ है केंद्र जीवन का;
तरंगित उर किया सबका, दिखा कब हिय किया उसका.
नयन उसके लखे सबको, बैन उसके बजा सबको;
नृत्य में मग्न सब रखके, होश में कहाँ सब राखे.
सुनाता सुर कभी अपना,पपीहा बनके गा जाता;
नहीं पहचान पर आता, प्रकट यद्यपि सदा रहता.
व्याप्त है आत्म जग सत्ता, हिलाती गात वत पत्ता;
मिला जो उर इसे वरता,वही समझे असल कर्त्ता.
धार में वही बह पाता, नहीं आधार फिर तकता;
केंद्र से एक हो जाता, ‘मधु’ माया से ना ढकता.
(रचना दि. ७ अक्तूबर २०१४ )
वाह! वाह !!
बहुत खूब .