कविता

कहाँ आधार जीवन का

कहाँ आधार जीवन का, कहाँ है केंद्र जीवन का; 
तरंगित उर किया सबका, दिखा कब हिय किया उसका. 
 
नयन उसके लखे सबको, बैन उसके बजा सबको;
नृत्य में मग्न सब रखके, होश में कहाँ सब राखे.
सुनाता सुर कभी अपना,पपीहा बनके गा जाता;
नहीं पहचान पर आता, प्रकट यद्यपि सदा रहता. 
 
व्याप्त है आत्म जग सत्ता, हिलाती गात वत पत्ता;
मिला जो उर इसे वरता,वही समझे असल कर्त्ता.
धार में वही बह पाता, नहीं आधार फिर तकता;
केंद्र से एक हो जाता, ‘मधु’ माया से ना ढकता.
 
(रचना दि. ७ अक्तूबर २०१४ )

2 thoughts on “कहाँ आधार जीवन का

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह! वाह !!

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत खूब .

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