ग़ज़ल : अपनी जिंदगी
अपनी जिंदगी गुजारी है ख्वाबों के ही साये में
ख्वाबों में तो अरमानों के जाने कितने मेले हैं
भुला पायेंगे कैसे हम ,जिनके प्यार के खातिर
सूरज चाँद की माफिक हम दुनिया में अकेले हैं
महकता है जहाँ सारा मुहब्बत की बदौलत ही
मुहब्बत को निभाने में फिर क्यों सारे झमेले हैं
ये उसकी बदनसीबी गर ,नहीं तो और फिर क्या है
जिसने पाया है बहुत थोड़ा, ज्यादा गम ही झेले हैं
अपनी जिंदगी गुजारी है ख्वाबों के ही सायें में
ख्वाबों में तो अरमानों के जाने कितने मेले हैं
मदन मोहन सक्सेना
अच्छी ग़ज़ल !
ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी