दो मुक्तक
हो गम की रात, आँखों ही आँखों में गुज़र जाने दो
दर्द के दरिया को अपनी हद से गुज़र जाने दो
दीया उम्मीद का तुम सदा जलाए रखना
बेरहम वक़्त का भयावह तूफान तो थम जाने दो ।
अश्क बहे जब जब मेरे सावन की झरी भी शर्माई
दरिया में बहते बहते रातें कितनी ही जागकर बिताई
जिए जा रहे याद में, आरजू है कि मरने भी देती नही
उलझनों में उलझ गयी ज़िन्दगी, रूह फिर भी है हर्षाई ।
बहुत अच्छा लगा .
अच्छे मुक्तक !