न मैं रहता जड़ ..न तुम रहती चेतन …
तुम गूंजती
मुझमे बनकर धड़कन
तुम निहारती
मुझे बहते निर्झर सा
बन कर दर्पण
तुम्हारी मुस्कराहट –
मेरे अंतर्मन के घने सूने को
छूकर
धूप सी जाती पसर
तुम हँसती तो –
खिले खिले से लगते
चंहूँ ओर के कण कण
-तुम भोर की
मनमोहक सुन्दरता
बुहारती –
मेरे मन आँगन में
अतीत के बिखरे तम
के शुष्क भ्रमित पर्णों को
अपनी किरणों के हाथो
लिए शीतल पवन को संग संग
तुम विराट की असीम चेतना
की
अभिव्यक्ति सी –
मेरे ऊर में …
रुधिर सी बहती हो निरंतर
मुझे दुलराती
तुम ..
करुणा सी …
बदले में मै
प्रेम सा –
करता तुम्हारा मधूर स्मरण और चिंतन
अंतर मिट जाता तब
न मै रहता जड़
न …
तुम रहती चेतन
किशोर
मज़ा आ गिया पड़ कर किशोर भाई .
बहुत अच्छी कविता.