नाद कल -कल
प्रकृति का यहीं हैं नियम
प्यासा रह जाए जीवन
लहरों के संग आये जल
घुल न पाए कभी पत्थर
सुख आये तो लगे शीतल
दुःख आये तो वहीं पाषाण
कहें छूना मुझे अभी मत
मैं हूँ बहुत गरम
मिलन की आश लिये
ह्रदय में प्यास लिये
लौट जाते –
लहरों के भी अधर
इसी तरह ….
संयोग की इच्छा लिये
विरह के अतृप्त जीवन कों
जीता हैं …
हर ठोस ..हर तरल
इस सत्य का साक्षात्कार लगता
मनुष्य कों ..
कभी अति जटिल
और कभी बहुत सरल
इसीलिए रहता हैं
समय के अंतराल के अनुभव में
एक ब्याकुल एकांत
हर चेतना में …अविरल
इस मध्यांतर के मौन की स्मृति में
गूंजता हैं हरदम
एकसार प्रवाहित नाद …कल -कल
किशोर कुमार खोरेंद्र
very nyc
वाह ! वाह !!
किशोर भाई बहुत अच्छी कविता है .
shukriya gurmel ji