सामाजिक

मनुष्य जीवन का सर्वहितकारी उद्देश्य सत्याचरण

सत्य और असत्य दो शब्द हैं। सत्य किसी पदार्थ का वह स्वरूप होता है जो कि यथार्थ में वैसा ही हो। हम जल के स्वरूप पर विचार करते हैं। जल एक द्रव पदार्थ है। शुद्ध जल रंग रहित होता है। जल का गुण शीतलता प्रदान करना है। इसमें गर्मी का होना अग्नि तत्व के जल में प्रवेश के कारण होता है। यदि अग्नि तत्व का किंचित भी प्रवेश जल में न हो तो जल निश्चित रूप से शीतल होगा। अतः इस संक्षिप्त विचार मनन से यह ज्ञात हुआ कि जल द्रव व शीतल होता है। और विचार करें तो हमें ज्ञात होगा कि जल हमारी पिपासा को शान्त करता है। हमारे शरीर का 2/3 भाग जलीय है तथा शेष पार्थिव। शरीर में जल का अनुपात कम हो जाये तो रूग्णता आ जाती है और इससे मृत्यु तक हो जाती है। जल हमारे भिन्न-भिन्न स्वादिष्ट भोज्य पदार्थों को पकाने व बनाने में भी काम आता है। जल से हम स्नान कर अपने शरीर को शुद्ध करते हैं तथा जल से सिंचाई करके हम अन्न व खाद्यान्न का उत्पादन करते हैं। यह सब बातें सत्य हैं। इनके विपरीत बातें असत्य कहलाती है। जल के इन गुणों व उपयोगो के विरूद्ध यदि हम यह कहें कि जल द्रव नहीं होता, जल में शीतलता नहीं होती, जल से पिपासा शान्त नहीं होती आदि तो यह बातें असत्य कहीं जाती हैं। सत्य को इस प्रकार से भी समझ सकते हैं कि जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा ही जानना व मानना सत्य होता है और उसके विपरीत असत्य होता है। इसी प्रकार से हमारे जीवन में सत्य का सर्वाधिक महत्व है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य आध्यात्मिक व भौतिक ज्ञान, जिसे परा व अपरा विद्या कहा जाता है, प्राप्त करना है। हमारे वैज्ञानिक सृष्टि में कार्यरत नियमों को खोजते हैं और फिर उन नियमों का उपयोग कर जीवन को सुख-सुविधा सम्पन्न बनाने के लिए उनका सदुपयोग व प्रयोग करते हैं। आज हमारे पास जितने भी जीवन को सुख देने वाले साधन हैं वह सब हमारे वैज्ञानिकों द्वारा सृष्टि में कार्यरत सत्य नियमों को जानकर उनसे लाभ उठाने से ही सम्भव हुए है। इससे यह ज्ञान होता है कि मनुष्य को सत्य का पालन करना चाहिये इससे हमारा जीवन सुखी व सम्पन्न होता है।

मनुष्य का यह स्वभाव देखा गया है कि वह लोभ व मोह में फंस कर कई बार सत्य से विमुख हो जाता है। यह लोभ व मोह कई प्रकार के हो सकते हैं। किसी को अपनी प्रसिद्धि का लोभ है तो किसी को धन व भौतिक पदार्थों का तथा किसी को पुत्र आदि सन्तानों का मोह है। यदि इन एषणाओं की प्राप्ति के लिए मनुष्य उचित साधनों से इनकी प्राप्ति के लिए प्रयास करता है तो इसमें कोई अनुचित बात नहीं। परन्तु जब मनुष्य इसके लिए अनुचित साधनों का उपयोग करता है तो उसे असत्य की संज्ञा दी जाती है। धन का लोभ सर्वाधिक देखा जाता है। धन कमाने में आजकल लोग सत्य व असत्य तथा  उचित व अनुचित का ध्यान नहीं रखते। जैसे भी हो, धन को उपार्जित करना है। इस अनुचित कार्य के कारण मनुष्य को अनेक पाप करने पड़ जाते हैं परन्तु लोभ का प्रभाव ऐसा होता है कि वह जानकर भी अनजान बना रहता है। इसका एक कारण यह भी है कि आजकल की स्कूली शिक्षा में आध्यात्मिक मूल्यों को उचित महत्व नहीं दिया जा रहा है। हम बड़े-बड़े शिक्षितों, ज्ञानियों व विद्वानों तक को अनुचित कार्य करते हुए देखते हैं। जब वह करते हैं तो अनुचित कार्यों को करते समय पूरी गोपनीयता बरतते हैं। किसी को पता ही नहीं चलता। परन्तु एक समय ऐसा आता है कि जब उनके कामों का पर्दाफास हो जाता है। फिर उन्हें मुंह छिपाना पड़ता है। टीवी व समाचार पत्रों में ऐसे उदाहरण समय-समय पर मिलते रहते हैं। आज के समय में व्यक्ति को झूठ बोलने में भी महारत हासिल है। ऐसे लोग कई बार न्याय की प्रक्रिया में भी फंस जाते हैं। वहां वह जानते हुए भी कि वह गलत हैं, सत्य को छिपाते हैं एवं घुमा फिराकर बातें करते हैं जिससे अभियोजन पक्ष को उनके विरूद्ध प्रमाण जुटाने में कठिनाई का अनुभव होता है। ऐसी स्थिति में कई बार प्रमाण के अभाव में गलत काम करने वाले बच भी जाते हैं। यह न्याय व्यवस्था के लिए एक चुनौती होती है कि अनुचित काम करने वाले दण्ड व्यवस्था से न बच पायें।

मनुष्य असत्य के मार्ग पर क्यों चलता है? क्या उसे असत्य के मार्ग से हटाया जा सकता है और क्या उसे सत्य के मार्ग पर चलाया जा सकता है? आईये, इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ते हैं। मनुष्य असत्य के मार्ग पर मुख्यतः अज्ञान व स्वभाव दोष के कारण चलता है। जब उसे ज्ञान हो जाता है तो वह अपना हित व अहित जानते हुए, सत्य व असत्य को समझते हुए दोनों में से एक का चयन करता है। कई बार मनुष्य जानबूझ कर असत्य को स्वीकार करता है जिसका कारण उसका उसमें बड़ा स्वार्थ होता है। मनुष्य बुरे काम करता ही स्वार्थ में फंस कर है। हमें लगता है कि यदि स्वार्थ न हो तो स्वभाव दोष को छोड़कर शायद बुरे कार्यों को करने में प्रवृत्त न हो। यदि मनुष्य में स्वार्थ न हो तो शायद कोई भी मनुष्य असत्य का आचरण न करे। अज्ञानता में असत्य का आचरण होना सम्भव है परन्तु सत्य व असत्य का ज्ञान होने पर भी जो असत्य का आचरण करता है तो उसका कारण उसका अपना स्वार्थ व हित होता है जो उसे विवेकशून्य बना देता है। ऐसे लोगों को जो ज्ञानपूर्वक बुरे काम करते हैं, हमारा कानून सजा देता है जबकि अनजाने व अज्ञानता तथा परिस्थितियोंवश किये जाने वाले अपराधिक कार्यों में वह कुछ नरम होता है जो कि उचित ही है। अब मनुष्य में स्वार्थ की प्रवृत्ति तथा अपने हित को पूरा करने के लिए उचित व अनुचित का विचार न करने की प्रवृत्ति पर विचार करते हैं। अपने स्वार्थ व हित को सिद्ध करने वाला व्यक्ति उसके परिणामों से अनभिज्ञ होता है। उसे यह निश्चयात्मक ज्ञान नहीं होता कि यदि वह सांसारिक विधि व्यवस्था से बच भी गया या उसे उसके अपराध की मात्रा के अनुसार दण्ड नहीं मिला तो ईश्वर की व्यवस्था से उसे कालान्तर में अवश्यमेव दण्ड मिलेगा। अब समयान्तर पर उसे कड़ी सजा मिलती है। हमने कई बार लोगों को यह कहते सुना है कि एक व्यक्ति बुरा काम करता है परन्तु वह तो सुखी व सम्पन्न है, फल-फूल रहा है जबकि हम अच्छा काम करने पर भी दुखी है। इसका कारण होता है कि अभी वह परीक्षा दे रहा है, उसके पूरी होने पर ईश्वरीय व्यवस्थानुसार दण्ड मिलेगा। दूसरी ओर हमने पहले जो परीक्षा कभी दी थी जिसमें हमने कुछ या अधिक बुरे कर्म किये थे, उसका परिणाम निकल आया है जिसके कारण हमें दुख मिल रहे हैं। अनेक परिस्थितियों में हम अपने बुरे कर्मों को भूल चुके होेते हैं। ईश्वर की व्यवस्था ऐसी है कि मनुष्य जब पाप अर्थात् असत्य कार्य करता है तो वह उसके हृदय या आत्मा में प्रेरणा करता है और उसे भय, शंका व लज्जा की अनुभूति कराता है। परन्तु जब वह नहीं मानता और बुरा काम कर डालता है तो फिर वह उसे फल का भोग करते समय ज्ञान क्यों कराये, चेतावनी तो उसने कर्म करने से पूर्व दी ही थी। वह तो सीधा अपना निर्णय सुनाता है जिस कारण असत्य व बुरे कर्म करने वाले को नाना प्रकार के दुख प्राप्त होते हैं जिनसे वह विचलित होता है और मानने को तैयार नहीं होता कि अतीत के बुरे कर्मों का फल उसे ईश्वर की व्यवस्था से मिल रहा है। इस उदाहरण को समझकर यदि हम भविष्य में या अगले जन्म में दुखों से बचना चाहते हैं और यह चाहते हैं कि हमारे भावी जन्म व जीवन में सुख व शान्ति हो, हमें अच्छी योनि में जन्म मिले और वहां हम खूब सुख भोगें, तो हमें इस जन्म में अच्छे कर्मों की पूजीं को अपने कर्मों के खाते में जमा करना व संचित करना होगा जिसका भुगतान हमें अवश्यमेव भावी जीवन में होगा। इसकी गारण्टी ईश्वर ने अपने ज्ञान वेद में दी है जो कि वेद का अध्ययन करने पर समझ में आती है। यदि हम सदाचार, परोपकार, सेवा, ईश्वर की उपासना व यज्ञादि कर्मों को नहीं करते हैं तो हमारा कर्मों का खाता खाली होगा या जमा पूंजी कम होगी जिससे हमारे जीवन में सुख की मात्रा भी उसी के अनुरूप होगी। इस कर्म-फल रहस्य को जानकर स्वार्थ का त्याग कर हम सभी को सत्य पर ही स्थिर रहना चाहिये। यदि नहीं रहेंगे तो ईश्वर अपने विधान के अनुसार अपना कार्य करेगा।

हमने इस लेख में यह विचार किया है कि मनुष्य क्या असत्य व बुराईयों का त्याग नहीं कर सकता? क्या असत्य का आचरण व बुराइयों को भी जीवन में प्रयोग में लाना आवश्यक है? इसका समाधान वैदिक ज्ञान व कर्म-फल व्यवस्था को जानने से होता है जिसका उल्लेख पूर्व किया गया है। इसका दूसरा उपाय है कि जो लोग ईश्वरीय विधान को जान व समझ चुके हैं, उनका यह कर्तव्य है कि वह दूसरों असत्याचरण से बचायें। माता-पिताओं को बच्चों को अच्छी शिक्षा व संस्कार देने का प्रबन्ध करना चाहिये। बच्चों को अपने विद्यालयों या गुरूकुलों में वेदों के अनुसार शिक्षा मिलनी चाहिये। वहां वह अन्य सभी विषयों के साथ ईश्वर की उपासना व अग्निहोत्र विज्ञान का नियमित रूप से अध्ययन व आचरण करें। अध्ययन में आध्यात्म विद्या का विषय आवश्यक होना चाहिये। सामाजिक नियम कड़े होने चाहिये तथा दण्ड विधान तीव्र-गतिवान, कठोर व प्रभावशाली होना चाहिये। ऐसा होने पर ही मनुष्यों को बुरे कर्मों से हटा कर अच्छे कर्म करने में प्रेरित किया जा सकता है। इससे सभी का व्यक्तिगत लाभ, अभ्युदय व निःश्रेयस होने के साथ समाज तथा देश का हित भी होगा।

 –मनमोहन कुमार आर्य

6 thoughts on “मनुष्य जीवन का सर्वहितकारी उद्देश्य सत्याचरण

  • उपासना सियाग

    बहुत सुन्दर और सार्थक लेख।

    • Man Mohan Kumar Arya

      उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए आभार एवं धन्यवाद।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मनमोहन जी , आप के लेख बहुत अछे होते हैं . यह सत्य असत्य के विषय में जो आप ने लिखा बहुत अच्छा लगा . लेकिन जो मैं सोचता हूँ इस का कारण हर इंसान एक दुसरे से भिन्न है , आदतें एक दुसरे से इलग्ग हैं , सोच एक दुसरे से इलग्ग है . अपनी बात ही करूँगा , मैं किसी के साथ लड़ाई झगडा कर ही नहीं सकता किओंकि मैं है ही ऐसा हूँ , शरीर का तगड़ा भी हूँ लेकिन कुछ लोग ऐसे दीखते हैं जैसे वोह सिर्फ बोन के ही बने हुए हैं और एक दिन जब वोह किसी का खून कर देते हैं तो लोग हैरान हो जाते हैं कि यह वोह ही आदमी है ? धार्मिक आस्थानों में लोग जाते हैं लेकिन बाहिर से तो सभी धार्मिक दीखते हैं लेकिन भीतर में किया कुछ छिपाए बैठे हैं कोई नहीं जानता . यह जानवरों में भी ऐसा ही है , उदहारण के तौर पर हम कुत्ते ही ले लें , कुछ कुत्ते तो ऐसे हैं उनको जितना मर्ज़ी तंग करो वोह भैन्केंगे ही नहीं , कुछ आप रास्ते में चलते जाते हैं पीछे से अचानक टांग पकड लेंगे . मुझे याद आया बहुत वर्ष पहले गाँव में मेरे छोटे भैया ने कुछ कुक्कड़ रखे हुए थे . उन में से एक कुक्ड इतना बुरा था कि लोगों के पीछे दौड़ता था और अपनी चोंच से जख्मी कर देता था . मनमोहन भाई आप के लेख पड़ कर कॉमेंट देने को दिल कर आता है , अगर आप को कॉमेंट अछे न लगें तो मुझे मुआफ कर देना .

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी, आपकी मेल एवं प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद। जब भी आपकी मेल देखता हूँ तो हार्दिक प्रसन्नता होती है। आपसे मित्रता का रिस्ता जुड़ गया है। आपकी जब भी मेल मिलेगी तो मुझे प्रसन्नता होगी। आपकी आत्मा, मन और ह्रदय साफ़ व शुद्ध है, ऐसा मुझे अनुभव होता है। सबको ऐसा ही होना चाहिए। मुझे आपके शब्दों से आत्मिक बल भी मिलता है। यह मेरा सौभाग्य एवं ईश्वर का धन्यवाद है। मैं पुन आपका धन्यवाद करता हूँ।

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा लेख. सदाचरण में ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है.

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते आदरणीय श्री विजय जी, आपकी मेल एवं प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद।

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