मैं हूँ सीमित नदी
तुम हो प्यार का असीमित सागर
खुश हूँ मैं … तुम्हे पाकर
तुम तक पहुँचने से पहले
मेरी कामनाओं की लहरों को
हर मोड़ पर किनारों ने ठुकराया
खुश हूँ अब मैं तुम तक आकर
मैं हूँ सीमित नदी
तुम हो प्यार का असीमित सागर
कभी घाट पर मिले अपरिचित से
परिचित लोग
कभी वन के एकांत से गुजरते हुए
सुना मैंने अपने ही मन का शोर
उमंग का रंग पर सूर्योदय
घोल गया मुझमे रोज
तुम्हे पाने की धुन में
वियोग को जीती रही गाकर
मैं हूँ सीमित नदी
तुम हो प्यार का असीमित सागर
kishor kumar khorendr
बहुत खूब !
shukriya vijay ji
कविता अच्छी है .
shukriya gurmel sinh bhamara ji