उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 3)

मेरे पिताजी श्री छेदा लाल अग्रवाल हैं, जो परिवार में ‘छिद्दा’ नाम से जाने जाते हैं। उन्होंने कभी कहीं पर (शायद राया कस्बे में) हिसाब-किताब लिखने का काम किया था अर्थात् मुनीमगीरी की थी, इसलिए वे गाँव में ‘मुनीम जी’ उपनाम से विख्यात हैं। पिताजी को हम सब पहले भैया कहकर पुकारते थे। भैया पुराने जमाने के कक्षा 8 पास हैं, जो कि उन दिनों काफी ऊँची समझी जाती थी। अगर वे चाहते तो आसानी से मास्टर हो सकते थे और कालान्तर में हैड मास्टर भी, मगर पता नहीं क्या सोचकर उन्होेंने ‘मास्टरी’ की बजाय ‘मुनीमगीरी’ को ही पसन्द किया। वे उर्दू और अंकगणित के अच्छे जानकार हैं। मैंने भी उनसे उर्दू सीखी है।

पिताजी ने बाद में मुनीमगीरी छोड़कर अपने दोनों छोटे भाइयों के साथ रेडीमेड कपड़े की दुकान कर ली, जो कि बहुत सफल रही। वे कटपीस और थान मँगाया करते थे और खुद काटकर और अपनी दुकान पर कारीगरों से सिलवा कर थोक तथा खेरीज (यानी फुटकर) में बेचा करते थे। हमारे बड़े चाचाजी श्री रामजी लाल और छोटे चाचाजी श्री शिवनन्दन लाल सिले हुए कपड़े साइकिल पर लाद कर आसपास के गाँवों की साप्ताहिक पेंठों (हाटों) में ले जाकर बेचा करते थे। एक जमाने में हमारे यहाँ आठ सिलाई मशीनें तक चलती थीं तथा रोजाना सिले कपड़ों का एक बड़ा गट्ठर बिक जाता था। प्रारम्भ में पेंठों में कपड़ा पहुँचाने के लिए हमारे यहाँ एक नौकर भी था, जिसका नाम था ‘जहाँगीर खाँ’, मगर कहते थे सब ‘झंगीरा’। वह नगाड़ा बजाने में बहुत निपुण था।

मेरी माता जी गाँव-मोहल्ले में ‘आगरेवारी’ के उपनाम से प्रसिद्ध हैं। हमारे यहाँ यह परम्परा है कि औरतों को उनके मायके के स्थान-नाम में वारी (या वाली) लगाकर पुकारा जाता है। जैसे आगरेवारी, मथुरावारी, दाऊजीवारी वगैरह-वगैरह। वैसे वहाँ ऊपरवाली, नीचेवाली, सामनेवाली, गलीवाली या चक्कीवाली भी समान रूप से उपयोगी हैं, मगर नानऊवाली, विसावलीवाली या अछनेरेवाली ज्यादा चलते हैं। कहने का मतलब यह कि हमारी माता जी का मायका आगरा में होने के कारण वे आगरेवारी के नामे से मशहूर हैं। वैसे हमारे लिए वे भाभी हैं (यानी हम सब उन्हें भाभी कहते हैं) और गाँव के लोगों के लिए ‘सेठानी’। मेरी माता जी काफी धार्मिक महिला हैं। गाँव में एक वही ऐसी थीं, जो नियमित रूप से रामायण बाँचती थीं। परिवार में होने वाले ब्याह शादी में गीतों का मोर्चा भी उसे सँभालना होता था। कुल मिलाकर गाँव-मुहल्ले में उसकी काफी इज्जत थी और है।

अपने बचपन के प्रारम्भ में मेरे ऊपर सबसे ज्यादा प्रभाव अपनी माताजी का पड़ा था। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैं करीब 2-3 वर्ष का था, तो मेरे पास लोहे की एक खंजरी थी। रोज शाम को उसे बजा-बजाकर मैं छत पर पिताजी तथा माताजी के सामने नाचा करता था। माताजी गीत गाया करती थीं। मुझे उसमें बहुत आनन्द आता था। एक खंजरी टूट जाने के बाद फौरन ही दूसरी खंजरी ला दी गयी थी। तभी अचानक यह बन्द हो गया, क्यों यह मुझे याद नहीं। माताजी का कहना है कि मुझे किसी की नजर लग गयी थी और मेरे पैरों को लकवा मारते-मारते बचा था। पहले मैंने इस बात पर विश्वास कर लिया था, पर अब नहीं होता। मेरे विचार से हुआ यह होगा कि नित्य 2-2 घंटे नृत्य करने के कारण पड़े दबाब को मेरे कमजोर पैर झेल न पाये होंगे, इसलिए बीमार पड़ गया होऊँगा। जो भी हो, यह सही है कि उसके बाद मेरा नृत्य बिल्कुल बन्द हो गया। यों मैं नृत्य का शौकीन आज भी हूँ और यदा-कदा अपनी भाभियों के सामने एक-आध ठुमका लगा दिया करता हूँ। होली पर नाचना तो मुझे हद से ज्यादा पसन्द है ही।

मैं अपने बचपन के प्रारम्भ में काफी धार्मिक था। भाभी मुझे रोज रामायण, महाभारत और पुराणों की कहानियाँ सुनाया करती थी, जिन पर मैं आँख मूँदकर विश्वास कर लिया करता था। भक्त प्रहलाद और ध्रुव की कहानियाँ सुनकर मैं उनके समान ही भक्त बनने के सपने देखा करता था। कई भजन तथा प्रार्थनायें भाभी ने मुझे याद करा दी थीं तथा उन्हें हम रात को सोते समय या सुबह जागने के बाद गाया करते थे। बाद में मैंने पूजा करना भी शुरू कर किया और हनुमान चालीसा पढ़ने का भी नियम बनाया। यह बात अलग है कि मैं इनको ज्यादा दिनों तक जारी नहीं रख पाता था। कारण यह कि मैं स्वभाव से ही कुछ मनमौजी और आलसी किस्म का हूँ। नियमों में बँधने से मुझ अरुचि थी। हालांकि मैं किसी नियम का कुछ दिन तक पालन जरूर करता था। मगर यह अरुचि पहले ही दिन से शुरू हो जाती थी कि अब मुझे नियम में बँधना पड़ेगा। किसी तरह मैं उस कार्य (मसलन चालीसा पढ़ना) को जारी रखता और बीच-बीच में आलस की बजह से कभी-कभी छोड़ भी देता। जब कभी अरुचि ज्यादा बढ़ जाती तो उस काम को बिल्कुल बन्द कर देता था।

मेरे तीन बड़े भाई हैं। सबसे बड़े श्री महावीर प्रसाद अग्रवाल, पहले उ.प्र. गन्ना शोध संस्थान, शाहजहाँपुर में सेवा करते थे। आजकल वे मुजफ्फर नगर में ऐसे ही एक संस्थान में सेवारत हैं। दूसरे भाई श्री राममूर्ति सिंघल डाक्टर हैं। आगरा के सरोजिनी नायडू मेडीकल कालेज से एमबीबीएस करने के बाद वहीं से एनीस्थिसिया में एमडी की उपाधि प्राप्त की है और आजकल आगरा में ही रहकर प्राइवेट प्रेक्टिस करते हैं। तासरे भाई श्री गोविन्द स्वरूप सिंघल एम.काॅम. कर चुके हैं और पंजाब नेशनल बैंक में बाबू हैं। वे अभी अविवाहित हैं। भाइयों में सबसे छोटा मैं हूँ। मेरी दो बहनें भी हैं- गीता और सुनीता, जो दोनों ही मुझसे छोटी हैं। अभी उन दोनों का भी विवाह नहीं हुआ है।

(पादटीप- मेरी माताजी का जनवरी, २००४ में आँतों के केंसर से देहांत हो चुका है. मेरे बड़े भाई श्री महावीर प्रसाद अग्रवाल केन्द्रीय बकरी अनुसन्धान संस्थान, फरह से अवकाश प्राप्त कर चुके हैं. उनकी पत्नी अर्थात् मेरी बड़ी भाभीजी का स्वर्गवास हो गया है. उनसे छोटे डॉ राम मूर्ति जी अभी भी आगरा में प्रक्टिस करते हैं और प्रतिष्ठित डाक्टर हैं. उनसे छोटे श्री गोविन्द स्वरुप सिंघल पंजाब नेशनल बैंक में वरिष्ठ प्रबंधक हैं और शीघ्र ही अवकाश प्राप्त करने वाले हैं. मेरी दोनों छोटी बहिनों भी आगरा में अपने-अपने परिवारों के साथ मस्त हैं. हम सभी भाई-बहिनों के दो या तीन बच्चे हैं.)

यह मेरा सौभाग्य था कि मुझे ऐसे परिवार में जन्म मिला जहाँ शिक्षा का वातावरण था। मेरे पिताजी खुद शिक्षित थे तथा माताजी भी गाँव की किसी भी औरत से ज्यादा पढ़ी थीं। इससे बढ़कर या शायद इसी की वजह से मेरे तीनों बड़े भाइयों की भी पढ़ने में काफी रुचि थी। स्वभावतः मेरी भी पढ़ाई में रुचि जागृत हो गयी थी। जिज्ञासु होना सदा से मेरा गुण (या अवगुण) रहा है। इसी जिज्ञासा का परिणाम था कि जिस उम्र में बच्चे अपनी माताओं की गोद में दुबके रहते हैं, उस उम्र में मैं गिनती, पहाड़े, वर्णमाला आदि जान गया था और घर वालों के नाम हिन्दी में लिख लिया करता था।

यहाँ आपको यह बात बता दूँ कि पढ़ना मेरा नियम कभी नहीं रहा। जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ कि नियमों में बँधना मेरा स्वभाव अस्वीकार करता है। यों मैंने पढ़ने का कार्यक्रम (टाइम-टेबिल) कई बार बनाया, मगर उसका पालन कभी नहीं किया। यह आश्चर्य ही है कि जब मैं कक्षा एक का विद्यार्थी था तब भी और जब शोध छात्र था तब भी नियमानुसार पढ़ना मुझे नापंसद रहा है। जब मैं शैशवावस्था में था तो घर पर खूब खेलता था, ऊधम करता था, पिटता था और प्यार भी पाता था। जब घर से बाहर जाने लगा, तो कुछ फूटे हुए कच्चे घरों में मिट्टी में दिनभर खेला करता था। भूख लगती थी तो आकर खाना खा जाता था और फिर अपने हम उम्र बच्चों के साथ धूल में लोटना, मारपीट करना आदि।

ऐसे में आप आश्चर्य करेंगे कि मुझे अक्षर ज्ञान कैसे हुआ और कब हुआ। इसका एक मात्र जबाब है मेरी जिज्ञासा। जब मैं बड़े भाइयों को पढ़ते देखता था, तो खुद भी अक्षर पहचानना सीखता था। खड़िया से अक्षर बनाया करता था, चीजें गिना करता था जैसे और बच्चे करते हैं। फलतः बिना किसी नियमित पढ़ाई या कोचिंग के मुझे अच्छा ज्ञान हो गया। जब मैं करीब चार-साढ़े चार साल का था तो हिन्दी अच्छी तरह पढ़ लेता था। जोड़, घटाव तथा छोटे-छोटे गुणा भाग भी कर लेता था। मेरे एक ताऊ श्री राम नारायण जी प्रायः कहा करते थे कि यह ‘अभिमन्यु शिक्षा’ है, जिसमें पेट में ही सब सिखा दिया जाता है। ये ताऊजी मुझे बहुत प्यार करते थे।

अपने माताजी और पिताजी से एक और गुण मुझे विरासत में मिला है, वह है धन के प्रति लोभ का अभाव। बचपन में जहाँ और लोग गुल्लकों में बड़ी फिक्र और कंजूसी से पैसे इकट्ठे किया करते हैं, वह गुण मुझमें नहीं रहा। यों गुल्लकें कई बार खरीदीं और उनमें दो चार दिन सिक्के डाले भी, पर एक दो रुपये से ज्यादा कभी इकट्ठे नहीं हो पाये। पता नहीं क्या बात है कि मेरे पास पैसे ज्यादा देर तक अब भी नहीं टिकते। एक दिन आते हैं और दूसरे ही दिन ऐसे चले जाते हैं कि पता ही नहीं चलता। यह हाल सिर्फ मेरा नहीं बल्कि हमारे घर में लगभग सबका है, केवल मेरी दो छोटी बहनों को छोड़कर जो रुपये जोड़ने में इतनी कंजूस हैं कि अपने पास 100 रुपये भी रखे रहेंगे, पर हम भाइयों से किसी न किसी बहाने एक-एक रुपया लेने के लिए गिड़गिड़ायेंगी, यहाँ तक कि अगर चवन्नी भी आती दिखी, तो ’भागते भूत की लँगोटी ही सही’ की मुद्रा में उसे भी लपक लेने में संकोच नहीं करेंगी।

जब हम बहुत छोटे थे, तो पिताजी रोज सबेरे पाँच पैसे या एक आना दिया करते थे, जिन्हें हम तुरन्त ही मूँगफली या किसी और चीज में बदलकर उदरस्थ कर लिया करते थे। दूसरी चीजें शाम को चाचाजी पेंठ से लौटते हुए लाया करते थे, उन्हें भी खूब खाते थे। पैसों की कभी खास जरूरत नहीं पड़ती थी क्योंकि घर में किसी भी चीज की कमी नहीं थी। हालांकि मुझे पैसों का लोभ नहीं था, पर पैसे वसूलने में कभी-कभी चालाकी भी कर जाता था। जैसे एक बार अकेले में पिताजी से ले लिये और दूसरी बार जब चाचाजी अकेले होते तो उनसे भी ले लिये। कभी-कभी यह चालाकी पकड़ भी ली जाती थी, पर मामूली चिल्लाने या डाँट-डपट के सिवा कुछ नहीं होता था।

पैसों के लिए चोरी करने की हमें आदत नहीं थी, बल्कि कहिये कि चोरी करना और फिर झूठ बोलना मुझे सबसे ज्यादा नापसन्द था, क्योंकि हम सोचते थे कि अगर झूठ पकड़ लिया गया तो कितनी बदनामी होगी। यही कारण था कि बचपन में सब हमें बहुत प्यार करते थे और हमारे ऊपर विश्वास करते थे। कई बार भारी शरारतें करने पर भी मुझे सिर्फ इसलिए मामूली सजा देकर छोड़ दिया जाता था कि मैं झूठ नहीं बोलता था।

मेरी माताजी की एक और आदत थी कि घर में कोई विशेष चीज बनाती थीं, तो पहले पड़ोसियों और ब्राह्मण के घर जरूर भिजवाती थीं। हमारे परिवार के दूसरे लोगों को स्वभावतः यह बुरा लगता था। कई बार झगड़ा भी हुआ, मगर माताजी ने लेने-देने में उदारता बरतना बंद नहीं किया। माताजी का कहना था कि हमें ईश्वर देता है और आगे भी ईश्वर ही देता रहेगा। सोचता हूँ माताजी का यह विश्वास कितना सुदृढ़ तथा सत्य था कि विषम से विषम परिस्थिति में भी नहीं डिगा। उदारता का यह गुण मुझे भी माताजी से ही मिला है। मेरा विचार है कि हमारी माताजी सच्चे अर्थो में समाजवादी हैं। मुझे इस बात का गर्व है कि हमारी माताजी गाँव मुहल्ले के गरीब घरों की सहायता करने में कभी पीछे नहीं रहती थीं। सबके लिए हमारे घर के दरवाजे खुले रहते थे। बाँटकर खाने की यह प्रवृत्ति मुझमें भी स्वभावतः पैदा हुई। जो भी चीजें हम लाते थे, बाँटकर खाते थे। आज भी मुझे कोई चीज अकेले-अकेले खाना बहुत बुरा लगता है। कई बार चाय पीने की तीव्र इच्छा होते हुए भी मुझे सिर्फ इसलिए स्थगित कर देनी पड़ती है कि कोई साथ (कम्पनी) देने वाला नहीं होता।

अपने परिवार के बौद्धिक, उदार और आदर्श वातावरण का मेरे व्यक्तित्व पर बहुत प्रभाव पड़ा है, खासतौर से माताजी का। वैसे मैं बचपन जितना धार्मिक अब नहीं हूँ, मतलब पूजा-पाठ वगैरह नहीं करता, परन्तु ईश्वरीय सत्ता में मेरा अभी भी दृढ़ विश्वास है। इस विश्वास का श्रेय मैं माताजी के सिवा और किसको दे सकता हूँ? पिताजी को भी नहीं, क्योंकि शुरू में पिताजी बहुत उदासीन थे इन मामलों में। हालांकि वे धार्मिक कार्यो में नियमित भाग लेते थे तथा होली-दिवाली पर पूजा भी किया करते थे मगर माता जी की तरह नित्य पूजा करते मैंने उन्हें कभी नहीं देखा। इसका कारण यह हो सकता है कि उन्हें दुकान के काम से समय नहीं मिलता था। सुबह 6 बजे से लेकर रात 8-9 बजे तक दुकान पर कपड़े काटना उनका काम था। दोपहर को खाना खाने की छुट्टी ले लेते थे और बीच-बीच में हम भाइयों को पढ़ने में भी सहायता किया करते थे।

कभी-कभी मैं भी अपनी पट्टी-बुद्दिका (यह एक तरह की दवात होती है जिसमें खड़िया घोली जाती है) लेकर उनके पास बैठकर अक्षरों का अभ्यास किया करता था। यह उन दिनों की बात है जब मैंने स्कूल जाना शुरू नहीं किया था क्योंकि मैं छोटा था। इस तरह घर ही मेरी पहली पाठशाला बना और उस समय के संस्कार मेरे स्वभाव में अभी भी इतने प्रबल हैं कि खुद मुझे भी आश्चर्य होता है।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

6 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 3)

  • गुंजन अग्रवाल

    waah bhai bahut sundar jiiwan katha hai aapki ….meri maa bhi isi tarah ki hai …garibo ki sahayta karna n ghar me koi bhi vishesh cheez banne par sabse pehle mandir bhejna uske baad hi koi kha sakta hai aaj …aur koi bhi mausmi fal ko khud grahan karne se pehle bhagwan ke naam se mandir bhejna uske bad hi khud grahan karna ….aapki khaani ne mujhe ateet ki yaadon ko aankho ke saamne laa khda kar diya…really shabd nhi mil rahe mujhe apni baat kehne kke liye 🙂 n meri maa bhi mathura ki hai to unhe aaj bhi mathura wali hi kehkar log pukaarte hai 🙂

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत धन्यवाद, गुंजन जी. यही भारतीय संस्कृति है.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आप की जीवन कथा बहुत दिलचस्प है . कुछ आदतें मेरी भी आप से मिलती जुलती हैं , मसलिन धार्मिक तो मैं बिलकुल नहीं हूँ और यह बचपन से ही है , शाएद मैं अपने दादा जी पर गिया हूँ किओंकि मेरी माँ जिस को हम बीबी कहते थे बहुत धार्मिक थी और आर्थिक तौर पर हमारा घर गाँव में कुछ अच्छा होने के कारण और सुभाव से ही रहमदिल होने की वजह से मेरी बीबी गरीबों की मदद बहुत किया करती थी . बहुत मज़ा आ रहा है पड़ कर , धन्यवाद .

    • विजय कुमार सिंघल

      प्रणाम, भाई साहब. मेरी कहानी आपको पसंद आ रही है, तो मेरा परिश्रम सार्थक हो गया. हार्दिक आभार ! अगर मुझसे कहीं भूल हो जाये, तो अवश्य बताएं.

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    रोचक कहानी

    • विजय कुमार सिंघल

      हार्दिक धन्यवाद, विभा जी.

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