पल भरमे ……..
पल भरमे ……..
हां बहुत कुछ हुआ
इस बीच
मुझे पटरिया
समझ कर
वक्त ,कई रेलों की तरह
मुझ पर से गुजर गया
फिर भी मै ज़िंदा हूँ
ताज्जुब है ….
कविता लिखने के लिये
फिर जीना
फिर मरना क्या जरूरी है ..?
अपनी सवेंदानाओ कों जानने के लिये
कभी बूंद भर अमृत
कभी प्याला भर जहर पीना क्या जरूरी है ..?
मुझ लिखे शब्दों कों
कलम की नीब
धार की तरह काटती गयी ….
मेरी पीड़ा
कों फिर वह नीब कहाँ .
शब्द दे पायी
बहुत कुछ सा -मै हर बार …
अनलिखा भी रह जाता हूँ
भावो का एक ज्वार था ……
जिसके उतरने पर ……..
मै अकेला ही था सुनसान किनारे पर
मेरे हाथ मे
मेरे आँसुओं से गीली रेत थी
और हर बार की तरह
मै शेष रह गया था
क्योकी
कविता बच ही जाती है
और ..और .लिखने के लिये
फिर -भी
चाँद मेरी व्यथा कों
समझ नही पाया था
मैंने उसकी किरणों से प्राथना की –
अब तो ..समझ जाए ……..वह
— किशोर कुमार खोरेंद्र
बढ़िया !