तुम सुमन हो…
हर पल मुझे महसूस होता है
तुम्हारी काल्पनिक उंगलियों का कोमल स्पर्श
लगता है –
मुझे पन्नो सा पलटकर
तुम पढ़ती हो सहर्ष
रुक जाती है जब मेरी कलम
तब तुम कहती हो –
इसे लिखो …यह है
इस कविता के लिये उपयुक्त शब्द
तुम्हारी और मेरी –
भावनाओं और विचारों के एकत्व
के पश्चात –
एक् दूसरे कों याद करते रहना ..
अब महत्वपूर्ण है हम दोनों के मध्य
तुम्हारे बिना मै चल नही पाता
एक भी कदम
फिर भी तुम कभी कभी कह देती हो ..
मुझसे –
“मुझे भूल भी जाओगे ..तो
आपके लेखन से मिली मानसिक संतुष्टी
मेरे लिये सात जनम तक ..न होगी कम
तब
मै कांप जता हूँ
भीतर ही भीतर डर ….
मै चाहता हूँ –
इस तरह से भूलने -भूलाने की बाते
मुझसे तुम
कभी न कहना ….चाहे फिर वह क्यों हो न स्वप्न
तुम सुमन हो मै रहूँ सदा बन कर उसकी महक
किशोर कुमार खोरेंद्र
अच्छी कविता !
khubsurat ahsaas
shukriya gunjan agrawal ji