भटकाव
आख़िर मैं
पहुँच ही गया
जहाँ पर
राह ख़त्म हो ज़ाती है
यहाँ पर
न शहर है न गाँव है
आकाश का धरती की ओर
बस कुछ झुकाव है
यहाँ से
एक नदी शुरू होती है
उसकी सतह पर एक नाव तैरती है
उस पार घना जंगल है
वहाँ पर
कहीं धूप है
वहाँ पर
कहीं छाँव है
फिर से
नये पथ को खोजूँगा
बिना मंज़िल को
जाने चलूँगा
जीवन बस
एक भटकाव है
किशोर कुमार खोरेंद्र
वाह वाह