कविता

भटकाव

आख़िर मैं
पहुँच ही गया
जहाँ पर
राह ख़त्म हो ज़ाती है
यहाँ पर
न शहर है न गाँव है
आकाश का धरती की ओर
बस कुछ झुकाव है
यहाँ से
एक नदी शुरू होती है
उसकी सतह पर एक नाव तैरती है
उस पार घना जंगल है
वहाँ पर
कहीं धूप है
वहाँ पर
कहीं छाँव है
फिर से
नये पथ को खोजूँगा
बिना मंज़िल को
जाने चलूँगा
जीवन बस
एक भटकाव है


किशोर कुमार खोरेंद्र

किशोर कुमार खोरेंद्र

परिचय - किशोर कुमार खोरेन्द्र जन्म तारीख -०७-१०-१९५४ शिक्षा - बी ए व्यवसाय - भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत एक अधिकारी रूचि- भ्रमण करना ,दोस्त बनाना , काव्य लेखन उपलब्धियाँ - बालार्क नामक कविता संग्रह का सह संपादन और विभिन्न काव्य संकलन की पुस्तकों में कविताओं को शामिल किया गया है add - t-58 sect- 01 extn awanti vihar RAIPUR ,C.G.

One thought on “भटकाव

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह वाह

Comments are closed.