बबूल के बिखरे हुए कांटे
एक बरगद का वृक्ष
उसके नीचे बैठे हुए लोग
एल फावड़ा
एक गैती
एल सब्बल
आस पास दूर दूर तक खेतों की हरियाली
बबूल के बिखरे हुए कांटे
नजदीक ही एक तालाब
और ..एक खुदती हुई नयी कब्र
यह वह जगह थी
जहाँ पर हम सोचना छोड़ देते हैं
जहाँ पर
प्रत्येक क्षण घास के नुकीले पत्तों की तरह
चुभने लगते हैं
बादल ,रास्ते ,पत्ते ,नाले,घड़ी
रुके हुए से लगते हैं
जहाँ पर
बाहर से ज्यादा ..
भीतर का सोया हुआ एक मौन
जाग उठता हैं ..
प्रशन वही ..यदि सभी कुछ नश्वर हैं
तो अनश्वर क्या हैं ..
बस इतना ही जानने के लिये
शायद हम जन्मे हैं …?
नए बीज ,नए पौधे ,नयी कलियाँ ,नए फूल ,नए फल
पर स्वाद वही सदीयों पुराना ..
कुछ खट्टा कुछ मीठा
और प्रकृति के इस रंगमंच पर
चलते रहता हैं
इसी तरह एक सिलसिला
आना और जाना
पर ऐसा क्यों लगता हैं आखिर में
कि-
कुछ कयों नहीं मिला
किशोर कुमार खोरेंद्र
वाह वाह ! बहुत खूब !!
किशोर जी , हमेशा की तरह आप की कविताओं में एक गहराई होती है जिस को सोचने पर मजबूर हो जाते हैं , बस यह संसार एक गोर्ख धंदा ही तो है !
बाहर से ज्यादा,भीतर का सोया हुआ एक मौन,जाग उठता हैं ….. वाह वाह, बहुत मार्मिक