उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 18)

अध्याय-7: हँसा हूँ हाल पर अपने

जिन्दगी यूँ भी गुजर ही जाती।
क्यों तेरा रह गुजर याद आया?

बी.एससी. की परीक्षा देने के बाद मुझे किसी विषय में एम.एससी. करनी थी। मेरे सामने गणित, सांख्यिकी और अर्थशास्त्र तीन विकल्प थे। गणित में स्वाभाविक रुचि होने के कारण मेरा झुकाव इधर ही था, लेकिन बी.एससी. में सांख्यिकी में भी गहरी रुचि जाग्रत हो चुकी थी और इसमें मेरे अंक भी काफी अच्छे आने की उम्मीद थी, अतः मैं सांख्यिकी में ही एम.एससी. करना चाहता था। एक बात यह भी थी कि हमारे शिक्षक श्री सक्सैना साहब ने मुझे एम.स्टेट (अर्थात् मास्टर आॅफ स्टेटिस्टिक्स अर्थात् सांख्यिकी में स्नातकोत्तर उपाधि) के बारे में बताकर कहा था कि यह कोर्स कठिन है, लेकिन तुम्हारे लिए ठीक है। मैंने इस चुनौती को स्वीकार किया और मुझे इस बात की खुशी है कि मैं इनमें सफल रहा।

मेरा बी.एससी. का परिणाम तब तक आया नहीं था और एम.स्टेट में एडमीशन के लिए विज्ञापन निकल चुका था। आगरा विश्वविद्यालय परिसर में ही एक समाज विज्ञान संस्थान है, जहाँ एम.स्टेट की कक्षाएं लगती हैं। वहीं से प्रवेश के लिए आवेदन माँगे गये थे। अतः मैंने भी डा. भाई साहब से कहकर एक आवेदन पत्र मँगा लिया और भरकर जमा भी करा दिया। कुछ दिनों बाद ही मेरे पास इन्टरव्यू के लिए पत्र आ गया। मैं भाई साहब के साथ जाना चाहता था, लेकिन उन्हें कोई काम पड़ गया। इसलिए मैं अकेला ही चला गया। भाई साहब ने कहा था कि वे जल्दी ही वहाँ पहुँच जायेंगे। इन्टरव्यू के लिए उस समय ज्यादा लोग नहीं थे। अतः शीघ्र ही मेरी बारी आ गयी।

इन्टरव्यू लेने के लिए वहाँ केवल दो शिक्षक बैठे हुए थे। एक थे डाॅ. वी.के. सेठी तथा दूसरे थे श्री एम.पी. गौतम। मैं अपनी सुनने की कठिनाई के बारे में आवेदन पत्र में लिख ही चुका था। अतः जब डाॅ. सेठी ने मुझसे कुछ पूछा तो मैंने आवेदन पत्र दिखाते हुए बता दिया कि मैं सुनने में असमर्थ हूँ और केवल लिख कर बातें करता हूँ। तब उन्होंने मुझसे लिखकर कुछ प्रश्न किये। प्रारम्भ के प्रश्न मेरी बीमारी से सम्बन्धित थे, जिनका मैंने संतोषजनक जवाब दे दिया।

अगले प्रश्न गणित से सम्बन्धित थे। मेरे दुर्भाग्य से मैं उस समय तक बी.एससी. (प्रथम वर्ष) में पढ़े हुए गणित को लगभग भूल चुका था अतः मैं उनके सरलतम प्रश्नों का भी जबाव नहीं दे सका। लेकिन मैंने उनहें स्पष्ट बता दिया कि मैं प्रीवियस का गणित भूल गया हूँ, लेकिन एक बार पढ़ने से सारा याद हो जायेगा। तब उन्होंने पूछा कि तुम्हें क्या याद है। तो मैंने बताया कि द्वितीय वर्ष का गणित और दोनों वर्षों की सांख्यिकी सारी याद है। तब उन्होंने मुझसे सांख्यिकी में कुछ प्रश्न किये जिनका मैंने सही- सही जबाब दे दिया। तब तक डाॅ. भाई साहब भी आ गये थे। परिचय के बाद डाॅ. सेठी ने उनसे कहा कि यह बी.एससी. (प्रथम वर्ष) का गणित सारा भूल गया है। मैंने शर्माते हुए कहा कि मैं जल्दी ही केवल एक बार पढ़कर सारा याद कर लूँगा।

तब डाॅ. सेठी ने खुश होकर मुझे प्रवेश देना स्वीकार कर लिया। मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और कार्यालय में जाकर प्रवेश के लिए आवश्यक फीस जमा कर दी। कक्षा के प्रथम दिन मुझे ज्ञात हुआ कि सेंट जाॅह्न्स कालेज से मैं अकेला नहीं हूँ, बल्कि मेरे तीन अन्य सहपाठी श्री रवीन्द्र पचौरी, श्री अरुण पाल दानी तथा कु. कल्पना कपूर भी मेरे साथ प्रवेश ले चुके थे। हालांकि उनका इन्टरव्यू मेरे सामने नहीं हुआ था। उनका साथ पाकर मुझे खुशी हुई, लेकिन कु. नीलम खन्ना और अन्य लड़कों का नाम न देखकर आश्चर्य भी हुआ। मालूम हुआ कि उनमें से ज्यादातर ने आगरा काॅलेज में गणित में एम.एससी. में प्रवेश लिया है या लेना चाहते हैं।

हमारी कक्षा में 20 छात्र-छात्राओं को प्रवेश दिया गया था, जिनमें से दो सर्वश्री एल.यू. विजय कुमार तथा आर. थानाशेखर दक्षिण के थे। लेकिन कक्षाएँ शुरू होते ही चार लड़के कोर्स छोड़कर चले गये अर्थात् केवल 16 छात्र रह गये। जिनमें दो लड़कियाँ थीं। कल्पना के अलावा दूसरी छात्रा थीं कु. अलका जैन, जो आगरा कालेज से गणित में एम.एससी. करने के बाद वहाँ एम.स्टेट. करने आयी थीं। लेकिन एक महीने में ही 6 अन्य छात्र भी एम.स्टेट. छोड़कर चले गये। उनमें श्री रवीन्द्र पचैरी भी थे, जिन्होंने सेंट जाॅह्न्स में ही भौतिकी में एम.एससी. में प्रवेश ले लिया था। अब हमारी कक्षा में केवल 10 व्यक्ति रह गये थे।
एम.स्टेट. कोर्स की कठिनता हमारे सामने स्पष्ट हो चुकी थी तथा हम यह भी समझ गये थे कि इसमें काफीे कठिन परिश्रम की आवश्यकता होगी। लेकिन हम पूरी तरह निराश नहीं हुए थे, हालांकि कुछ शंकित अवश्य थे। हमारे सौभाग्य से इस इन्स्टीट्यूट में हमारे सभी शिक्षक बहुत योग्य थे और पढ़ाने में पूरी रुचि लेते थे।

उस संस्थान के डायरेक्टर (निदेशक) थे डा. देवी दत्त जोशी (संक्षेप में डा. डी.डी. जोशी)। वे बहुत अनुशासन प्रिय, लेकिन कठोरता रहित थे। छात्रों के साथ वे काफी घुलमिल जाते थे। उनका ज्ञान का सागर अथाह था। अगर कोई अतिशयोक्ति न हो तो मैं कहूँगा कि पूरी दुनिया के नहीं तो पूरे एशिया के सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ हैं। उनका पढ़ाने का तरीका इतना अच्छा था कि शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। हमारे दुर्भाग्य से हम उनसे ज्यादा विषय नहीं पढ़ सके क्योंकि हमारे अधिकतर विषय दूसरे शिक्षकों में बाँट दिये गये थे। फिर भी उनसे जितना भी पढ़ा, उतना भी हमारा सौभाग्य था। उनसे पढ़ते-पढ़ते हम कभी तृप्त नहीं होते थे।

उनमें एक ही आदत थी (जिसे मैं खराब कहने का दुस्साहस नहीं करूँगा) कि वे लगातार सिगरेट पीते रहते थे। अंग्रेजी में जिन्हें चेन स्मोकर कहा जाता है, वे उसी किस्म के थे। कक्षा लेने के लिए आते समय वे अपने कमरे में ही नयी सिगरेट जला लेते थे और कक्षा में बैठकर उसे समाप्त करने के बाद ही पढ़ाना शुरू करते थे। लड़के कहते थे कि अगर वे कक्षा में शुरू में सिगरेट न पियें, तो कुछ पढ़ा ही नहीं सकेंगे। इस बात में कितनी सच्चाई है कहा नहीं जा सकता।

डा. जोशी के बाद जिनसे मैं अत्यधिक प्रभावित था और हूँ, वे थे डा. विनोद करण सेठी (संक्षेप में डा. वी.के. सेठी), जिन्होंने प्रवेश के समय मेरा इन्टरव्यू लिया था। अपने विषयों में उनका ज्ञान अथाह था। लड़के कहते थे कि वे पूरी दुनिया में दूसरे सबसे अच्छे Samplist हैं अर्थात् Sampling के उनसे अच्छे विद्वान उस समय सिर्फ एक ही थे डाॅ. मूर्ति। उनका पढ़ाने का तरीका भी बहुत अच्छा था। जब तक छात्र संतुष्ट नहीं हो जाते थे, तब तक वे एक ही बात को बार-बार विभिन्न तरीकों से समझाते रहते थे। वे छात्रों पर काफी मेहनत करते थे और अपनी तरफ से कभी किसी तरह की लापरवाही नहीं करते थे।

एक अच्छे प्रोफेसर होने के साथ ही वे बहुत अच्छे इंसान भी थे। हमें अच्छे प्रोफेसर मिल सकते हैं, अच्छे इंसान भी मिल जायेंगे, लेकिन जिनमें ये दोनों गुण प्रचुर मात्रा में हों ऐसे व्यक्ति दुर्लभ ही होते हैं। डा. सेठी में ये दोनों ही गुण थे। कई बार किसी छात्र का प्रदर्शन अत्यधिक निराशाजनक होते हुए भी उन्होंने उसे अपनी तरफ से कभी हतोत्साहित नहीं किया। बल्कि हमेशा प्रोत्साहित ही करते थे। उनमें एक और विशेषता थी कि उनकी कक्षा होने या न होने पर भी वे प्रातः 10 बजे से सायंकाल साढ़े चार बजे तक संस्थान में अवश्य ही उपस्थित रहते थे। जबकि अन्य ज्यादातर अध्यापक मौका मिलते ही घर चले जाते थे और कक्षाओं के समय के अलावा उनको पा जाना लगभग असंभव ही होता था। डा. सेठी अपने खाली समय में प्रायः चाइनीज चैकर खेलते रहते थे।

मुझसे वे बहुत खुश रहते थे क्योंकि उनकी आशा के अनुरूप मैं कक्षा में बहुत आगे रहता था। आम रट्टू छात्रों के विपरीत मैं विषय की गहराई में जाने की कोशिश करता था और कई बार प्रतिप्रश्न भी पूछा करता था। मेरे परिचितों से वे प्रायः मेरी योग्यता की प्रशंसा किया करते थे।

हमारे एक और प्राध्यापक थे डाॅ. टी.बी.एम. सिंह। डा. जोशी के बाद जिन अध्यापकों का सर्वतोमुखी ज्ञान अधिकतम था, उनमें डा. सिंह का पहला नाम था। डा. जोशी की तरह ही उनके ज्ञान की थाह पाना हमारे लिए तो असंभव था। हालांकि वे कक्षा के बाहर हमसे ज्यादा सम्बन्ध नहीं रखते थे, लेकिन कक्षा में वे पूर्ण रुचि के साथ हमें पढ़ाया करते थे और हमें संतुष्ट करने की पूरी कोशिश करते थे।

उनके पढ़ाने का तरीका अद्वितीय था। अन्य अध्यापकों की परम्परा के विपरीत वे नये-नये प्रश्नों को छात्रों द्वारा ही हल कराने की कोशिश करते थे ताकि हम परम्परागत ज्ञान के बजाय हम कुछ मौलिक चिन्तन भी कर सकें। उनका परीक्षा लेने का तरीका भी अपने आप में अद्वितीय होता था। वे छात्रों को कोई कठिन सा प्रश्न देते थे, जो किसी भी पुस्तक में हल किया हुआ नहीं होता था। वे हमें किसी भी किताब को देखने की छूट देते थे (जिसे Open book exam कहा जाता है) और साथ ही यह भी छूट देते थे कि हम चाहें तो आपस में भी सलाह या चर्चा कर सकते हैं। उनका यह तरीका मुझे बहुत पसंद आता था। मैं उनके टैस्ट के लिए प्रायः कोई तैयारी नहीं करता था, क्योंकि उससे कुछ फायदा भी नहीं था।

उनके इस पढ़ाने के तरीके से हमारा विषय ज्ञान इतना गहरा हो गया था कि हम कठिन से कठिन प्रश्नों को भी हल कर डालते थे और प्रायः अधिक कठिन प्रश्नों की तलाश में रहते थे। उन्होंने हमें प्रायिकता (Probability), बहुचर विश्लेषण (Multivariate Analysis), सदिश आकाश (Vector Space) तथा मार्कोव शृंखलाएं (Markov Chains) जैसे कठिन विषयों की शिक्षा दी थी। इन विषयों में आज भी मेरा ज्ञान ऐसा है कि मामूली तैयारी के बाद इन विषयों को मैं एम.एससी. को भी पढ़ा सकता हूँ।

एम.स्टेट. चार सत्रों (सेमिस्टरों) का कोर्स था, जिसमें प्रत्येक सत्र छः माह का था। प्रथम सेमिस्टर में हमें प्रतिदर्श संकलन विज्ञान (Sampling) पढ़ाते थे श्री बी.के. लहरी। उस समय हम उन्हें कोई महत्व नहीं देते थे। इसके तीन कारण थे पहला तो यह कि हम सेंट जाॅह्न्स कालेज से नये-नये आये थे, जहाँ स्वच्छंदता की हद तक स्वतंत्र रहते थे और प्रायः अनुशासन में बँधना पसन्द नहीं करते थे। दूसरा कारण यह था कि उस समय तक श्री लहरी पी.एच.डी. नहीं थे। अतः हम समझते थे कि उनका ज्ञान और पढ़ाने का तरीका बेकार था। तीसरा कारण यह था कि श्री लहरी स्वयं भी कुछ शान्त प्रकृति के थे और प्रायः अन्य अध्यापकों और छात्रों से दूर-दूर ही रहते थे। इन सब कारणों की वजह से हम उनकी प्रायः उपेक्षा करते थे। यह हमें बाद में समझ में आया कि हम कितनी बड़ी गलती पर थे।

उन्हीं दिनों हमारा बी.एससी. का परीक्षाफल आया। आशा के अनुरूप मैं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण था। मेरे सहपाठी अरुण पाल दानी भी प्रथम श्रेणी में पास थे, लेकिन कु. कल्पना की भौतिक विज्ञान में सप्लीमेन्टरी आयी थी, जिस पर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। बी.एससी. में प्रथम श्रेणी आने से मेरा आत्मविश्वास (या कहिए घमंड) कुछ और बढ़ गया तथा मैं कुछ और लापरवाह हो गया।

एक बार की बात है। हम लोग पढ़ने के मूड में नहीं थे और श्री लहरी का घंटा था। अतः हममें से कुछ ने उनसे प्रार्थना की कि आज कक्षा छोड़ दें, क्योंकि हमारा पढ़ने का मूड नहीं है। लेकिन श्री लहरी ने तुरन्त इन्कार कर दिया और कक्षा में घुस गये। हमने इशारों में ही तय किया कि कोई भी कक्षा में नहीं जायेगा। अतः सब वहाँ से चुपचाप खिसक गये। श्री लहरी शायद थोड़ी देर वहाँ बैठे कि कोई पढ़ने आयेगा, लेकिन किसी को न आता देखकर गुस्से में चले गये।
दूसरे दिन अपनी कक्षा के समय वे तेजी से घुसे और अंग्रेजी में कहा- आप सबने कल मेरे साथ दुर्व्यवहार किया था, जिसके कारण मैं एक सप्ताह तक कक्षा नहीं लूँगा और इन दो अध्यायों को नहीं पढ़ाऊँगा। इतना कहकर उन्होंने दो अध्यायों के नाम बोर्ड पर लिखे और कक्षा से बाहर हो गये।

उनके इस कार्य से हम स्तब्ध रह गये। हमें आशा नहीं थी कि बात इतना गंभीर रूप ले लेगी। डरते-डरते हम अपने निदेशक डा. जोशी के पास गये और उन्हें मामला बताया। डा. जोशी ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की उसे सुनकर हम सब काँप गये। उन्होंने कहा- अगर श्री लहरी की जगह मैं होता, तो कभी नहीं पढ़ाता। इसे कहते हैं कि ‘छोटे मियाँ तो छोटे मियाँ, बड़े मियाँ सुभान अल्लाह’। हमारे लिए उस संस्थान में अनुशासनहीनता का यह पहला और आखिरी मौका था। इसके बाद हम सब डर गये थे और समझ गये थे कि यह सेंट जाॅह्न्स कालेज नहीं है।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

6 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 18)

  • Man Mohan Kumar Arya

    जीवन कथ्य पढ़कर लगा कि मैं यात्रा कर रहा हूँ। यात्रा में जिस तरह से एक के बाद एक नए नए दृश्य आँखों के सामने आते रहते है, ऐसे ही नई नई घटनाएँ पढ़कर आनंद आता रहा और आगे जानने की उत्सुकता बनी रही। हार्दिक शुभकामनायें एवं धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, बंधुवर !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत अच्छा लग रहा है और आप की याद शक्ति को सलाम .

    • विजय कुमार सिंघल

      प्रणाम भाई साहब. आप सबको यह अच्छा लग रहा है तो मेरा परिश्रम सफल हुआ. आभार !

    • विजय कुमार सिंघल

      जब यह लिखा था, तब ताजा था, इसलिए याद था. यह भाग मैंने आज से 28 साल पहले लिखा था.

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