टूट कर बिखरे हुए
आईने में जमी धूल की तरह तुम मुझे
साफ़ कर देना चाहती हो
पानी में तैरते तिनकों की तरह तुम मुझे
हिलोर कर अलग कर देना चाहती हो
पन्नों पर अंकित मेरी कविता के शब्दों कों मिटा कर
उन्हें हाशिये पर रखना चाहती हो
तुम ..मुझे …सूखी हुई गुलाब की पंखुरियों की तरह
अपने मन के रुमाल में बांधकर विसर्जीत कर देना चाहती हो
तुम चाहती हो कि….मेरा नाम या कोई निशाँ
तुम्हारे जीवन की जुबान पर शेष न रह जाए
मै खुद कों आज अजनबी और अवहेलित सा महसूस कर रहा हूँ
मेरे स्नेह और प्रेम कों तुमने खुबसूरत बादलों के आकाश से
काँटों से भरी जमीन पर उतार दिया .हैं .
टूट कर बिखरे हुए कांच के टुकड़े मुझे चुभ रहें हैं
मै तुम्हारे लिये पहले भी कुछ नहीं था
और
आज भी कुछ नहीं हूँ शायद
अब तुम मेरे न होने पर अपना स्वच्छ चेहरा
दर्पण में निहार सकोगी
किशोर कुमार खोरेंद्र
किया बात है .
sahanaa ke liye dhany vaada
वाह !
shukriya vijay ji