सामाजिक

कर्मफल

कर्म करना मनुष्य का काम है जिसे त्यागने पर वह जीवित नहीं रह सकता है। जीवन का आधार ही कर्म है। प्राणियों द्वारा सांस लेने की व छोड़ने की क्रिया इन्द्रियों और शरीर के अन्य कार्य करना भी एक प्रकार की से कर्म ही है। प्राणी एक क्षण भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता है। अन्य जीवों की केवल भोग योनि है परन्तु मनुष्य योनि होने और अन्य जीवों से श्रेष्ठतम होने से उसका कर्तव्य क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। मनुष्य को वैयक्तिक सामाजिक और राष्ट्रीय आदि अनेक कर्तव्य निभाने पड़ते हैं। वेदों में मनुष्य को श्रेष्टतम कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करने वाला बताया गया है और इसके लिए पवित्र आचार विचार और व्यवहार वाला जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी गई है।

ईश्वरीय कर्मफल व्यवस्था परमात्मा के सार्वभौम नियमों द्वारा संचालित होती है। मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है परन्तु फल परमात्मा के अधीन है। उसे शुभ और अशुभ कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। इसके लिए उसे पृथक-पृथक योनियों में भटकना पड़ता है। गीता में कर्मयोग के तीन भाग बताए गए हैं- शुभ कर्म करना और अशुभ कर्म न करना यह पहली सीढ़ी है। शुभ कर्म भी दो प्रकार के बताए गए हैं – सकाम यानी फल की इच्छा रखते हुए कर्म करना और निष्काम कर्म यानी फल की इच्छा न रखते हुए कर्म करना। निष्काम कर्म का अर्थ कर्महीन होना नहीं हैं। कर्म को बन्धन का कारण मानना भी उचित नहीं है क्योंकि मनुष्य कर्म किए बिना नहीं रह सकता है। कर्मफल की इच्छा करना दोषों की जड़ है।

गीता में अनेक बार कर्मफल को त्यागने का उपदेश दिया गया है। कर्मफलों को त्यागने से मुक्ति प्राप्त हो सकती है। कर्मफल त्याग का धर्म केवल शास्त्रों के उपदेशों में रह गया है ओर हमारे आचरण में लेशमात्र भी नहीं मिलता है। गीता में कर्मफल का त्याग तीन प्रकार का बताया गया है – मोहवश या आलस्यग्रस्त होकर कर्मों का त्याग करना तमोगुणी त्याग है। कर्मों को शरीर के कष्टों का कारण मानते हुए त्याग करना राजसी त्याग है। कर्मों की इच्छा और आसक्ति का परित्याग करते हुए कर्तव्य कर्म करते रहना सात्विक त्याग है।

कृष्ण कान्त वैदिक

3 thoughts on “कर्मफल

  • गुंजन अग्रवाल

    sundar gyanvardhak

  • Man Mohan Kumar Arya

    प्राणी एक छण भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता, इस पर मेरी शंका है कि क्या गहरी नींद में सोते हुए भी मनुष्य कर्म कर रहा होता है? यदि कर रहा होता है तो फिर – ‘अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम ‘ के अनुसार उसे इस कर्म का क्या फल प्राप्त होता है? यह सोना वा निद्रा शुभ कर्म है या अशुभ ? गीता में किन कर्मो के फलों को त्यागने को कहा गया है और किन कर्मो के फल को त्यागने से मुक्ति मिलती है , यह प्रश्नं पाठक के मन में होता है जिसके उत्तर की अनेक पाठकों को अपेक्षा हो सकती है? विषय एवं लेख अच्छा है. प्रयास सराहनीय है।

  • विजय कुमार सिंघल

    कर्मफल का सिद्धांत हिन्दू धर्मं का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है. अन्य तथाकथित धर्म जहां एक व्यक्ति कि शरण में जाने पर सभी पापों से मुक्ति हो जाने का दावा करते हैं, वहीँ हिन्दू संस्कृति के अनुसार अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है.
    लेख में सकाम और निष्काम कर्म के अंतर को बहुत सुन्दरता से स्पष्ट किया गया है.

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