बावरा–भाग १
पत्थर पर कुछ लेख पुराने
स्मृतियों के एक ठिकाने
सांझ का सूरज जैसे ढलता
खुद ही अपने आप को छलता
पथ से भटका मंजिल भूला
झूल निराशाओं का झूला
पर है बढ़ता जाए जोगी
मन की बात बताये जोगी
एक क्षण भी ना लिया आसरा
चलता जाता देखो बावरा
पत्थर से टकराया सीना
सागर से है सीखा जीना
फूलों से सीखा मुस्काना
और कलियों से प्रीत निभाना
बागों में जब आयी हरियाली
खिल खिल उठी जब हर एक डाली
तभी उठा निर्मोही ऐसे
मिला बहार से हो ना जैसे
एक क्षण भी ना लिया आसरा
चलता जाता देखो बावरा
नभ देखा और देखी धरती
देखी उड़ान जो चिड़िया भरती
देखा झरनों से बहता जल
नदियों का नित देखा कल कल
सिन्धु के सुंदर तट देखे
नाचते कूदते सब नट देखे
रमा नहीं पर, रुका नहीं पर
मन से सबको गले लगाकर
एक क्षण भी ना लिया आसरा
चलता जाता देखो बावरा
बीज बोये तो मिले नए फल
फूटे पहाड़ तो निकला नवजल
खंड खंड हो गए अखंड सब
टूटे टुकड़े हुए विखंड सब
धरती काटे देश बन गए
अभिशप्तों के शीश तन गए
लेकिन ये सबसे बेगाना
दुनिया ने ये भेद ना जाना
एक क्षण भी ना लिया आसरा
चलता जाता देखो बावरा
मोल प्रेम का चुका ना पाया
हाँ पर हर पल प्रीत निभाया
जितने क्षण जीवन के बिताए
उतने उत्सव गीत सुनाये
एक पल रुधिर रुदन ना रोया
कोई क्षण दुःख में ना खोया
लेकिन जब चलने का पल आया
एक पल भी ना रुका गवाया
एक क्षण भी ना लिया आसरा
बस चलता जाता देखो बावरा
____सौरभ कुमार दुबे