कविता — ‘स्त्री’
किसी कवि की कल्पनाओं सी
उन्मुक्त …….
उड़ने की आकांक्षा लिए हुए
जहाँ तक हो बहाव
बिखेरती अपने विचार
जमाती आकाश तक अपने
अधिकार …….
लेकिन मन का पक्षी जब करता
विचरण ……
रच देती है कुछ विलक्षण उद्गार
वो खुद नहीं समझ पाती अपने
आंतरिक रहस्य ……
रहती है खामोश सदा सबकुछ खोकर
उतर जाती जब जिद पर
सब हो जाते हैं निरुतर ….
शब्दों के बाण भी भरसक झेलती
नजरों की तीर भी है झेलती
गुजरती है अनंत आतंक और भय
की रातों से होकर …..
बावजूद सब के ऊपर उठती है स्त्री
शालीनता से अपनी विलक्षणता लिए हुए ….!
— संगीता सिंह ”भावना”
अच्छी कविता !
सुन्दर प्रस्तुति
behad umda