मेरी कविता
जब भी
लिखती हूँ कोई कविता
सचित्र अवतरण होने लगता है फ़िजा में
जिसमें डूबती हूँ उतरती हूँ
कभी आर कभी पार
और दर्शील हो उठती हैं
अनमोल झलकियाँ जीवन की
महक उठता है रोम-रोम ……
मेरी कविता ,,,
जब लिखती है कोई प्रेम गीत
शांत समंदर में हो जाती है हलचल
और दुगुने उत्साह से निकल पड़ती हैं लहरें
अपने प्रेम की ओढ़नी फहराती
लहराती चंचल ………
जब कभी लिखती हूँ सोंदर्य
धरती का ,,,,,,
अनगिनत पक्षियों का कलरव
गूंज उठता है वातावरण में
और झूम उठती हैं आकाश में घटाएँ
श्यामवर्णी होकर ………!!
बहुत ख़ूब !