अकेले
कभी जब होती हूँ बहुत
अकेले …….
सोचती हूँ हर संबंधों को
बहुत बारीकी से
और इस निष्कर्ष पर पहुँचती हूँ कि
हर रिश्ते मांगते हैं समर्पण
हम, जिसे शायद मालूम ही नहीं
प्रेम समर्पण ……
अकेलेपन के कवच से बाहर भी है
एक अनूठी दुनियां
जहाँ है प्रेम उपस्थित …….
भविष्य के सुख की सुखद स्मृतियाँ
साथ ही , दुःख के प्राचीन इतिहास
खिलते हैं प्रेम के फूल जहाँ …..
पर यह सब होता है तब ,जब मैं होती हूँ
बहुत अकेले ……..!