**अहंब्रह्मास्मि**
मैं मन वीणा का तार,
स्वरलिपियों की झंकार
नित नूतन हूँ नवकार,
प्राणों का प्राणाधार
जल थल मरू आकाश में,
दिनकर के नए प्रकाश में
क्षण क्षण में मैं कण कण में मैं,
पथ पर अविरल हर रण में मैं
करुणा में करुणाकार कहो,
आकारों में साकार कहो
पथ के काँटों में शूल में भी,
बागों में हर क्षण फूल में भी
ज्योति में तो अंधियारे में,
नित मन के नव उजियारे में
नव अंकुर धरती की छाती पर,
मैं पनपा नित जीवन बनकर
मझधार कहो पतवार कहो,
मुझको जीवन संचार कहो
शक्ति साहस का दूजा नाम,
सकाम भी हूँ और हूँ निष्काम
कर्मो में ना कर्मो के फल में,
श्रोतों से फूटे नवजल में,
अंतर में ना अंतर्घट में
वंशी के स्वर वंशीवट में,
भाषाओँ में ना बोली में
रंगों में मैं रंगोली में,
चिंता में मैं चिंतन में मैं,
धरती के हूँ जन जन में मैं
प्राणों का बनकर रखवाला,
फिर अंतरतम की मैं ज्वाला
धधका हूँ नित ही क्रान्ति में,
हूँ गूँज रहा मैं शांति में
आओ आलिंगन पाओ मेरा,
मिलकर जयघोष गाओ मेरा!!
___सौरभ कुमार दुबे
कविता अच्छी है. पर इसकी भारी-भरकम शब्दावली और भाव कुछ समझ में नहीं आये. इसमें कुछ कुछ रहस्यात्मकता है.