आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 26)
अध्याय-9: अरावली का उत्तरी छोर
मैं अकेले ही चला था जानिबे मंजिल मगर।
हम सफर मिलते गये और कारवाँ बनता गया।।
एम.स्टेट. की परीक्षा देने के बाद मैं एक ऐसे दोराहे पर खड़ा था जहाँ मुझे अपना आगे का रास्ता तय करना था। एक रास्ता था कि कोई नौकरी आदि ढूँढने की कोशिश करूँ और ‘भले’ लड़कों की तरह रहने लगूँं। दूसरा विकल्प था आगे पढ़ने का। मेरे माताजी-पिताजी स्वाभाविक रूप से पहले विकल्प के पक्ष में थे, क्योंकि हर माता-पिता की यह हार्दिक इच्छा होती है कि उनका सपूत जल्दी-से-जल्दी कुछ कमाने लगे, चाहे वह रकम कितनी ही मामूली क्यों न हो। कुछ ऐसा ही विचार मेरे माता-पिता तथा कुछ अन्य हितैषियों का था। पिताजी ने एक बार जोर डालकर मुझसे बैंक में क्लर्क बनने के लिए परीक्षा का फार्म भरवा दिया था, जिसमें मेरे तीस-चालीस रुपये और कई घण्टे खराब हुए।
लेकिन मेरे भाइयों और सबसे बढ़कर मेरा विचार दूसरे रास्ते के पक्ष में था। मेरे भाई श्री गोविन्द स्वरूप उन दिनों कानपुर में स्वयं एक बैंक में क्लर्क थे। जब उन्हें पता चला कि पिताजी ने मुझसे बैंक टेस्ट का फार्म भरवा दिया है, तो वे बहुत नाराज हुए थे। उन्होंने पत्र में पिताजी को लिखा था कि “आप विजय को क्लर्क क्यों बनाना चाहते हैं? विजय कभी क्लर्की करेगा नहीं और हम उसे करने नहीं देंगे।” अपने बड़े भाई के इन शब्दों से किस व्यक्ति की छाती गर्व से नहीं फूल जायेगी? बस मैंने तभी निश्चय कर लिया था कि मैं कुछ बनके दिखाऊँगा और उन्हें निराश नहीं करूँगा।
मेरा विचार पहले सांख्यिकी में ही पीएच.डी. करने का था। आगरा में इसकी सुविधा उपलब्ध थी और मेरा प्रवेश औपचारिकता मात्र ही होता। पीएच.डी. के साथ मुझे अध्येतावृत्ति (फैलोशिप) मिलने की भी पूरी आशा थी, जो उस समय 600 रुपये प्रतिमाह होती थी। यह मेरे लिए काफी बड़ी राशि थी। लेकिन मेरा विचार सांख्यिकी के बजाय कम्प्यूटर विज्ञान में पीएच.डी. जैसा कोई कोर्स करने का था। क्योंकि कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग पढ़ते समय मुझे इसमें बहुत रुचि जागृत हो गयी थी। यह विषय भी नया था और इसमें बहुत सम्भावनाएँ भी थीं। इसमें मेरी बुद्धि और कौशल का अधिक-से-अधिक उपयोग हो सकता था। सबसे बड़ी बात यह थी कि इसमें नौकरी मिलने की सम्भावनाएँ सबसे ज्यादा थीं। इसलिए मैंने कम्प्यूटर की पढ़ाई करने का निश्चय किया और सांख्यिकी में पीएच.डी. को मैंने अन्तिम विकल्प के तौर पर रखा।
इसके कई और भी कारण थे। सबसे पहला कारण तो यह था कि कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग में मेरा ज्ञान और रुचि बहुत ज्यादा थी। फॉरट्रान भाषा ने कम्प्यूटरों की एक आकर्षक दुनिया मेरे सामने खोल दी थी। अतः मैं इसमें और ज्यादा अध्ययन करना चाहता था। दूसरा कारण यह था कि मुझे लहरी साहब जैसे परम हितैषी गुरु का संरक्षण प्राप्त था, जो स्वयं तो कम्प्यूटर विज्ञान में कोई डिप्लोमा करके आये थे, लेकिन मुझे और अच्छा कोर्स कराना चाहते थे। उन्होंने मुझसे किसी आई.आई.टी. या टी.आई.एफ.आर. बम्बई में कप्यूटर साइंस के पीएच.डी. या ऐसे ही किसी कोर्स में प्रवेश लेने की सलाह दी थी। लेकिन उस समय ऐसा कोई विज्ञापन मेरी नजर में नहीं आया। यद्यपि मैं रोज दिल्ली से छपने वाले अंग्रेजी के दो-तीन अखबार देखता था। लहरी साहब भी इस मामले में मेरी सहायता करने में असमर्थ थे, क्योंकि जब तक प्रवेश के लिए कोई सूचना न निकले, प्रवेश लेना असंभव ही था।
मैं उन दिनों आगरा में ही था और जल्दी ही गाँव जाने की सोच रहा था क्योंकि दो-तीन महीने तक मेरे पास करने को कुछ नहीं था, केवल परिणाम का इन्तजार करना था। तभी एक दिन मुझे ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में कम्प्यूटर साइंस में एम.फिल. के कोर्स में प्रवेश का विज्ञापन नजर आया। इसमें यह भी लिखा हुआ था कि कुछ चुने हुए छात्रों को 600/- प्रतिमाह की फैलोशिप भी दी जायेगी। यह कोर्स करने की मेरी तीव्र इच्छा हुई। सबसे पहले मैंने अपने बड़े भाई डा. राममूर्ति सिंघल से परामर्श किया। उन्होंने यह कोर्स मेरे लिए अच्छा बताया। लेकिन उन्हें यह चिन्ता थी कि यदि फैलोशिप न मिली तो कैसे काम चलेगा। तब मैंने कहा कि मुझे जल्दी ही फैलोशिप मिल जायेगी। न मिली तो देखा जायेगा। अन्ततः उन्होंने स्वीकृति दे दी कि पहले फार्म भरके देख लें। अगर प्रवेश हो जायेगा तो बाकी बातों पर सोचा जायेगा।
मेरे पिताजी उन दिनों गाँव में थे, अतः उनसे पूछने का समय नहीं था। लेकिन मेरी माताजी की पहली प्रतिक्रिया यह थी कि यदि प्रवेश और फैलोशिप मिल भी गयी तो मैं दिल्ली में अकेला कैसे रहूँगा। उस दिन तक मैं एक दिन भी कहीं अकेला नहीं रहा था, बल्कि मैंने आगरा से अपने गाँव की एक-दो यात्राओं को छोड़कर उस दिन तक कहीं अकेले कोई यात्रा भी नहीं की थी। उसके मातृ हृदय की यह आशंका सही थी। लेकिन मैंने यह विश्वास दिलाया कि वहाँ होस्टल मिल जायेगा, जहाँ दोनों समय बना हुआ खाना मिल जाया करेगा। साथ ही यह भी जोड़ दिया कि दिल्ली आगरा से ज्यादा दूर नहीं है और मैं हर महीने-दो महीने पर आता-जाता रहूँगा। आखिर उसने अनुमति दे दी और मैंने फार्म मँगाने के लिए आवश्यक फीस तथा टिकट लगा हुआ और पता लिखा लिफाफा दिल्ली भेज दिया। लिफाफे पर मैंने अपने गाँव का पता लिखा था, क्योंकि मैं शीघ्र ही गाँव जाने वाला था।
गाँव में मैं अपना समय आमोद-प्रमोद में गुजारने लगा। अपने पोस्ट ग्रेजुएट होने का कुछ अभिमान भी मुझे हो गया था। गाँव में मैं सबकी प्रशंसा का पात्र था। लोग अपने सुपुत्रों को मेरे पद चिह्नों पर चलने की सलाह दिया करते थे और कहते थे कि देखो यह बहरा होने पर भी कितनी ऊँची पढ़ाई कर रहा है। मैंने गाँव वालों को यह भी कह रखा था कि अगले वर्ष मैं दिल्ली में पढूँगा। इससे स्वाभाविक रूप से मेरी इज्जत और बढ़ गयी थी। इसका एक और कारण था कि गाँव के मेरे संगी-साथी जितने भी थे उनमें से ज्यादातर इन्टर पास करके गाँव में ही रह गये थे और जो थोड़े से व्यक्ति आगरा पढ़ने गये भी उनमें से ज्यादातर बी.ए., बी.एससी. में फेल होकर बैरंग वापस लौट आये थे। केवल मैं ही एक ऐसा था जो न केवल आगे पढ़ता जा रहा था, बल्कि हर साल फर्स्ट डिवीजन में भी पास होता जा रहा था।
मैं गाँव में ज्यादातार ताश और अठारह गोटी के खेल खेलता था और कभी-कभी खेतों पर घूमने निकल जाता था। दिल्ली से मैंने जो फार्म मंगाया था, उसके बारे में मैं भूल ही गया था कि एक दिन मुझे रजिस्ट्री से फार्म मिल गया। मेरे ज्यादातर प्रमाण पत्र और उनकी सत्यापित प्रतिलिपियाँ मेरे साथ थीं ही, लेकिन फार्म के साथ मुझे किन्हीं दो व्यक्तियों के प्रशंसा पत्र भी लगाने थे। इनका प्रबन्ध गाँव में होना संभव नहीं था, क्योंकि भले ही मैं अपने गाँव में कितनी ही इज्जत और प्रशंसा का पात्र था, लेकिन उसका मूल्य दिल्ली में जरा भी नहीं था। मुझे तो किन्हीं दो प्रोफेसरों के लेटर हेड पर अंग्रेजी में टाइप किये गये ‘प्रशंसा पत्र’ चाहिए थे। फार्म भरने की आखिरी तारीख नजदीक थी। अतः मुझे अगले दिन ही आगरा जाना पड़ा।
वहाँ सबसे पहले मैं लहरी साहब के पास गया और उनसे प्रशंसा पत्र लिखने का निवेदन किया। वे तुरन्त तैयार हो गये, लेकिन उन्होंने यह सलाह भी दी कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में यह कोर्स अच्छा नहीं है। इसलिए मुझे टी.आई.एफ.आर. या किसी आई.आई.टी. में प्रवेश लेना चाहिए। लेकिन मैं उस मौके को छोड़ना नहीं चाहता था। अतः उन्होंने प्रशंसा पत्र लिख दिया। पहले वे टाइप कराना चाहते थे, लेकिन मैंने कहा कि टाइप कराने की सुविधा मेरे पास नहीं है तथा उसमें समय भी लग सकता है, तो उन्होंने अपने हाथ से ही एक लेटर हेड पर प्रशंसा पत्र लिख दिया।
दूसरे प्रशंसा पत्र के लिए मैं डा. बी.एम. सिंह के पास गया, जो लहरी साहब के घर के पास ही रहते थे। उन्हें जब मैंने बताया कि मैं एम.फिल. कम्प्यूटर साइंस में प्रवेश लेना चाहता हूँ तो वे बहुत खुश हुए। जब मैंने उनसे प्रशंसा पत्र लिखने के लिए कहा तो वे बोले कि मैं कम्प्यूटरों के बारे में कुछ नहीं जानता, दूसरे यदि मैं सेठी साहब से प्रशंसा पत्र लूँ तो उसका ज्यादा महत्व होगा। तब उन्होंने संकेत से पूछा कि क्या लहरी साहब ने प्रशंसा पत्र दे दिया है, तो मैंने कहा- ‘हाँ’, तब उन्होंने कहा- ठीक है, दूसरा प्रशंसा पत्र सेठी साहब से ले लो।
मैंने उन्हें अपनी कठिनाई बतायी कि मैंने न तो सेठी साहब का घर देखा है और न उनका नम्बर जानता हूँ, तो उन्होंने कहा कि नम्बर की आवश्यकता नहीं है। तब उन्होंने एक कागज पर सेठी साहब के घर का रास्ता समझाया और तुरन्त वहाँ जाने की सलाह दी।
मैं कुछ निराश अवश्य हुआ लेकिन फिर सोचा कि सेठी साहब से तो प्रशंसा पत्र मिल ही जायेगा, इस बहाने उनका घर भी देख लूँगा। अतः मैं सीधा उनके घर गया। उस समय वे दाढ़ी बना रहे थे। मुझे कुछ देर बाहर खड़े रहना पड़ा। लेकिन दाढ़ी बनाना समाप्त होते ही उन्होंने मुझे बुला लिया। फिर मेरे आने का कारण पूछा। मैंने अपनी आवश्यकता बतायी तो वे बहुत खुश हुए और तुरन्त प्रशंसा पत्र लिखने को तैयार हो गये। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं इन्स्टीट्यूट जाकर प्रशंसा पत्र टाइप कराकर ला सकता हूँ? मैंने कहा ला तो सकता था लेकिन अब समय नहीं है, क्योंकि फार्म मुझे आज ही डाक में डाल देना है, अन्यथा देर भी हो सकती है।
तब मुझे उनकी महानता का एक और रूप देखने को मिला। उन्होंने एक सादा कागज पर अपने हाथ से प्रशंसा पत्र लिखा और फिर एक छोटा सा टाइप राइटर निकाल कर अपने लेटर हेड पर प्रशंसा पत्र टाइप करना शुरू किया। उन्हें टाइप करने का बिल्कुल अभ्यास नहीं था, इसलिए वे अपनी तर्जनी उंगलियों से ही एक-एक कुंजी दबाकर टाइप कर रहे थे। मैं उनके सामने ही बैठा था। आश्चर्य कि उस सारे टाइप में उनसे केवल एक गलती हुई। फिर तुरन्त उन्होंने उस पर अपने हस्ताक्षर किये और प्रशंसा पत्र मुझे दे दिया। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। प्रशंसा पत्रों के मिलने की खुशी तो थी ही उससे ज्यादा खुशी इस बात की थी कि सेठी साहब ने मेरे लिए इतनी मेहनत की। बदले में मैं उन्हें औपचारिक धन्यवाद ही दे सका था। लेकिन वह उनकी उदारता और महानता की तुलना में बहुत तुच्छ था।
उसी दिन मैंने अपना फार्म भेज दिया और बुलावे की प्रतीक्षा करने लगा। भाई साहब ने मुझे तब तक कुछ तैयारी कर लेने के लिए कहा, लेकिन उस दिन तक न तो मैंने किसी परीक्षा की गंभीरता से तैयारी की थी और न मैं कर सकता था। मैं तो साल भर जो भी पढ़ समझ लेता था उसी को वार्षिक परीक्षा की तैयारी मानता था। दूसरा कारण यह भी था कि मुझे यह पता नहीं था कि टेस्ट आदि किस प्रकार के होंगे। बिना यह जाने किसी तैयारी का कोई अर्थ नहीं था। अतः मैं सब कुछ अपने ज्ञान और बुद्धि के ऊपर छोड़कर निश्चिन्त हो गया।
(जारी…)
लिखने की अदा बहुत अच्छी लगी और आप दिल की कलम से लिख रहे हैं ..बिना रुके एक बार में पड़ गया और लगा के ये विराम क्यों… …
बहुत बहुत धन्यवाद, इंतज़ार जी.
आप तो बहुत मिहनती शख्स हैं विजय भाई , इतनी मिहनत तो अब तक मैंने कहीं देखि या सुनी नहीं , तभी तो आप इतना कुछ कर पाए हैं , रश्क आता है आप के हौसले पे . ਤੁਸੀਂ ਤਾਂ ਭਾ ਜੀ ਬਹ ਜਾ ਬਹ ਜਾ ਕਰ ਦਿਤੀ .
प्रणाम भाई साहब ! बहुत बहुत आभार !!
सारा आद्यान्त वृतांत एक बार में ही पढ़ गया। मनुष्य का सबसे निकटस्थ साथी उसकी आत्मा में विद्यमान परमात्मा है। हमें जिन अच्छे कार्यों में उत्साह होता है व हम दृढ़ निश्चय करते हैं उसमे कुछ व अधिक भाग के रूप में ईश्वर की अन्तः प्रेरणा भी काम करती है। वैसी ही प्रेरणा या सुझाव परिवर के सदस्यों या मित्रों आदि से भी यदि मिलता है तो हमारा उत्साह बहुत बढ़ जाता है जो सफलता में सहायक होता है। यहाँ आपका अपना उत्साह, भाईसाहब का सप्पोर्ट तथा गुरुजनो का आशीर्वाद आपके मनोरथ को पूरा करता हुआ दिखाई दे रहा है। परिणाम आशा के अनुरूप होने की सम्भावना लग रही है हैं। आगे क्या होता है यह एक रहस्य है।
प्रणाम, बंधुवर. आपका कहना बिलकुल सत्य है. प्रभु की कृपा के बाद गुरुजनों का आशीर्वाद ही मेरी सफलता का प्रमुख कारण रहा है. मेरा अपना योगदान इसमें बहुत कम है.
धन्यवाद श्री विजय जी.