कविता

मेरे देश का बचपन

वह देखो
जा रहा है
मेरे देश का बचपन
हाथ में
कटोरा लिए
देश के बुढ़ापे से
भीख मांगता हुआ

वह देखो
उधर बैठा है
मेरे देश का भविष्य
हाथ में बूट पॉलिश लिए
देश के वर्तमान का
जूता चमका रहा है

वह देखो
उधर खड़ा है
मेरे देश का नौनिहाल
अपने जन्म का क़र्ज़ चुकता हुआ
जूठी प्लेटें धो रहा है

वह देखो
उधर सोया है
मेरे देश का कर्णधार
धरती के बिछौने पर
आकाश को लपेटे हुए
अपनी साँसों का क़र्ज़ चुकाता हुआ
दिन भर की मेहनत के बाद
अभी अभी सोया है

मेरे देश के भविष्य को
अपना वर्तमान संवारने दो

उसे काम !!
उसे काम करने दो !!

द्वारा –नमिता राकेश

2 thoughts on “मेरे देश का बचपन

  • देश उन्ती की और जा रहा है , सभी कहते हैं लेकिन जो गरीबी में जन्मे , गरीबी में जीवन गुज़ारा और गरीबी में ही मर रहे हैं उन को देख कर लगता है अभी एक सदी और लगेगी जब सभी पेट भर कर सो सकेंगे.

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कविता. यथार्थ को व्यक्त करती हुई.

Comments are closed.