उपन्यास अंश

उपन्यास : देवल देवी (कड़ी १४)

11. युद्ध की विभीषिका

आन्हिलवाड़ की छोटी-सी सेना के अग्रिम में 200 घुड़सवार थे इसका संचालन सेनापति इंद्रसेन कर रहा था। दाएँ अंग में 500 घुड़सवार का संचालन उप-सेनापति के जिम्मे था। बाएँ अंग में इतने ही घुड़सवार युवराज मणिक देव के संचालन में थे। मध्य भाग का संचालन राजा कर्ण कुछ चुने हुए घुड़सवारों के साथ कर रहे थे। परन्तु शत्रुओं की असंख्य सेना के सम्मुख ये वीर ऊँट के मुँह में जीरे की तरह थे। धन्य-धन्य ये वीर जो मृत्यु को सामने खड़ा देखकर केसरिया बाना पहने अपने शीशों को अपने हाथों से मातृभूमि पर चढ़ाने के यज्ञ का आह्वान कर रहे थे।

इंद्रसेन का आक्रमण ऐसा घातक था कि पहले ही वार में तुर्कों की सेना तितर-बितर हो गई। इस वार से तुर्क सेना के दो भाग हो गए। पर बघेल सेना बहुत कम थी। कोतल सेना का भी अभाव था। इसलिए राजपूतों की आरंभिक सफलता क्षणिक साबित हुई। तुर्क सेना ने तीव्र वेग से प्रत्याक्रमण किया। बघेल वीर कटने लगे। पर वीर इंद्रसेन इससे घबराया नहीं। वह मतवालों की तरह प्राणों का मोह छोड़ शत्रु सेना में धँसता चला गया। घड़ी भर में वह तुर्क सेना के मध्य में था।

सामने विश्वासघाती माधव दिखाई पड़ा। माधव इंद्रसेन को तुमुल युद्ध करते देख, दूसरी तरफ खिसका। उसे भागता देख इंद्रसेन ने हाँक लगाई, ”ठहर जा नमकहराम, जाता कहाँ है?“ उसने तीव्र वेग से आक्रमण किया। माधव को बचाने में असंख्य तुर्क योद्धा इंद्रसेन पर झपटे, पर इंद्रसेन ने घोड़ा दौड़ाया और माधव के सिर पर जाकर खड़ा हो गया। तलवारें चलीं। अवसर पाकर इंद्रसेन ने तलवार के वार से माधव का सिर धड़ से उतार लिया। उसे भाले पर छेद जिस तीव्रता से तुर्क सेना में घुसा था उसी तीव्रता से अपनी सेना में लौट आया। राजा कर्ण यह देख गद्गद हो गया।

अब दोपहर तक दिन चढ़ चुका था। घमासान युद्ध छिड़ा था। संख्या में कम होने के कारण राजपूत वीर निरंतर कटते जा रहे थे। नुसरत खाँ राजा कर्ण को पकड़ने के लिए आगे बढ़ा। मुसलमानी सेना चारों ओर से राजा कर्ण को दबाने लगी। तब इंद्रसेन ने राजा से कहा ”महाराज आप रणक्षेत्र से चले जाएँ। समय तनिक विकट है।“

राजा बोला ”अरे इंद्रसेन! क्या तू अकेला वीर योद्धा पैदा हुआ है।“ इतना कहकर वह उन्मुक्त हो तलवार चलाने लगे। इंद्रसेन और राजा कर्ण को बात करते देख युवराज मणिक देव नुसरत का धावा रोकने के लिए आगे बढ़ा। जिस तुर्क सेना में राजा को पकड़ो-पकड़ो का शोर मच रहा था, वही अब वीर युवा मणिक देव की मार से हाय-हाय मच गई। मणिक देव की मार से घबराकर नुसरत खाँ ने पंद्रह अमीरों को मणिक देव पर आक्रमण करने की आज्ञा दी।

अमीरों को अपनी तरफ झपटता देखकर वो वीर जिसकें होठों से अभी दूध की लार टपकती थी, जिसने अभी आयु के सोलह बसंत भी नहीं देखे थे, उसने युद्धभूमि में अपनी तलवार की चपलता से नुसरत खाँ को भी वाह-वाह कहने को मजबूर कर दिया। चारों तरफ से उस वीर बालक को घेरकर उस पर तलवार के वार किए जाने लगे। वह तिल-तिल होकर गिरा। युवराज की यूँ वीरगति देखकर राजा कर्ण विक्षिप्तों की तरह युद्ध करने लगे।

राजा को यूँ युद्ध करता देख इंद्रसेन ने उप-सेनापति कंचन सिंह के पास जाकर कहा ”कंचन सिंह, आप महाराज को लेकर किले में जाएँ और उनकी सुरक्षित निकासी का प्रबंध करें।“ तब तक राजा कर्ण भी लड़ता-भिड़ता वहाँ आ पहुँचा। उन्होंने संभवतः इंद्रसेन की बात सुन ली थी। गुस्से से बोले ”क्या तुम्हारी अक्ल पर पत्थर पड़े हैं, जो मुझे मरने से डराते हो।“

इंद्रसेन ”नहीं महाराज, हम तो केवल आपको रणभूमि से जाने के लिए कह रहे हैं।“

राजा कर्ण ”नहीं, मैं भाग नहीं सकता। आज या तो शत्रु समाप्त होगा या यह कर्ण देव।“

इंद्रसेन ”महाराज, जानबूझ कर प्राण देने को बुद्धिमानी नहीं कहते। भगवान श्रीकृष्ण उचित समय की प्रतिक्षा कर एक बार रणभूमि से भागे थे। यह युद्ध नीति है महाराज, आप राजा हैं, युद्ध जारी रखने के लिए आपका जीवित रहना आवश्यक है। कम से कम रानियों और राजकुमारियों की रक्षा के लिए महाराज। देश और धर्म की रक्षा के लिए। आपको भगवान सोमनाथ की सौगंध।“

कंचन सिंह ”महाराज, कदाचित इंद्रसेन सही कह रहे हैं, आप चलिए मैं आपको किले तक सुरक्षित पहुँचाता हूँ।“

राजा कर्ण ”और इंद्रसेन तुम?“

इंद्रसेन ”आप जाइए महाराज, मैं इन दानवों को रोकता हूँ। जब तक इंद्रसेन जीवित है ये राक्षस किले की दीवार भी नहीं छू सकते। पर समय कम है आप शीघ्रता से जाइए और राजरानियों और राजबालाओं को सुरक्षित स्थान पर भेजने का प्रबंध कीजिए।“

राजा कर्ण और कंचन सिंह अपने घोड़े किले की तरफ मोड़ते हैं और इंद्रसेन युद्ध भूमि की तरफ। अब इंद्रसेन के साथ बस कुछ सौ सैनिक ही बचे थे सब प्राण हथेली पर धर आगे बढ़े। नुसरत खाँ और उलूग खाँ साठ सिपहसालार साथ में लेकर इंद्रसेन की तरफ बढ़े। शत्रुओं ने चारों ओर से इंद्रसेन को घेर लिया। एक बार फिर मार-काट मची एक-एक सब कट मरे। केवल इंद्रसेन और वो बालक धर्मदेव को छोड़कर। जिसने आज भीषण युद्ध किया था। उसकी तलवार पर रक्त इस बात का गवाह था। उलूग खाँ ने आगे बढ़कर उस बालक पर प्रहार किया। धर्मदेव युद्ध में पारंगत न था, हाथ से तलवार छिटक गई, अगले पल उलूग खाँ ने उसे बालों से खींचकर उठा लिया। एक सिपहसालार की तरफ उछाल कर बोला, ”कैद कर लो पाजी को, बड़ा सरकश है।“

अब इंद्रसेन अकेला रह गया। इंद्रसेन अकेला ही शत्रु बादल से भिड़ गया। पर कब तक, आखिर उसका शरीर कट-कटकर गिरने लगा। उसकी आत्मा ने जैसे ही उसका शरीर छोड़ा आसमान की अप्सराएँ उसे लेकर सीधे स्वर्गलोक पहुँच गई।

सुधीर मौर्य

नाम - सुधीर मौर्य जन्म - ०१/११/१९७९, कानपुर माता - श्रीमती शकुंतला मौर्य पिता - स्व. श्री राम सेवक मौर्य पत्नी - श्रीमती शीलू मौर्य शिक्षा ------अभियांत्रिकी में डिप्लोमा, इतिहास और दर्शन में स्नातक, प्रबंधन में पोस्ट डिप्लोमा. सम्प्रति------इंजिनियर, और स्वतंत्र लेखन. कृतियाँ------- 1) एक गली कानपुर की (उपन्यास) 2) अमलतास के फूल (उपन्यास) 3) संकटा प्रसाद के किस्से (व्यंग्य उपन्यास) 4) देवलदेवी (ऐतहासिक उपन्यास) 5) मन्नत का तारा (उपन्यास) 6) माई लास्ट अफ़ेयर (उपन्यास) 7) वर्जित (उपन्यास) 8) अरीबा (उपन्यास) 9) स्वीट सिकस्टीन (उपन्यास) 10) पहला शूद्र (पौराणिक उपन्यास) 11) बलि का राज आये (पौराणिक उपन्यास) 12) रावण वध के बाद (पौराणिक उपन्यास) 13) मणिकपाला महासम्मत (आदिकालीन उपन्यास) 14) हम्मीर हठ (ऐतिहासिक उपन्यास ) 15) अधूरे पंख (कहानी संग्रह) 16) कर्ज और अन्य कहानियां (कहानी संग्रह) 17) ऐंजल जिया (कहानी संग्रह) 18) एक बेबाक लडकी (कहानी संग्रह) 19) हो न हो (काव्य संग्रह) 20) पाकिस्तान ट्रबुल्ड माईनरटीज (लेखिका - वींगस, सम्पादन - सुधीर मौर्य) पत्र-पत्रिकायों में प्रकाशन - खुबसूरत अंदाज़, अभिनव प्रयास, सोच विचार, युग्वंशिका, कादम्बनी, बुद्ध्भूमि, अविराम,लोकसत्य, गांडीव, उत्कर्ष मेल, अविराम, जनहित इंडिया, शिवम्, अखिल विश्व पत्रिका, रुबरु दुनिया, विश्वगाथा, सत्य दर्शन, डिफेंडर, झेलम एक्सप्रेस, जय विजय, परिंदे, मृग मरीचिका, प्राची, मुक्ता, शोध दिशा, गृहशोभा आदि में. पुरस्कार - कहानी 'एक बेबाक लड़की की कहानी' के लिए प्रतिलिपि २०१६ कथा उत्सव सम्मान। संपर्क----------------ग्राम और पोस्ट-गंज जलालाबाद, जनपद-उन्नाव, पिन-२०९८६९, उत्तर प्रदेश ईमेल [email protected] blog --------------http://sudheer-maurya.blogspot.com 09619483963

2 thoughts on “उपन्यास : देवल देवी (कड़ी १४)

  • विजय कुमार सिंघल

    राजाओं में परस्पर प्रतिस्पर्धा और एकता की कमी के कारण विदेशी हमलावर सफल हो जाते थे, वर्ना भारत में उनको सीधे यमलोक पहुँचाया जा सकता था, जैसे सालार मसूद को पहुँचाया था.

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