अपनी अंतरात्मा में रहो…
सड़कों से कहता रहा
अगर संकीर्ण पुल या
करीब खाई हो
तो ऐसे बचो
धूल से कहा –
अपने रंग कों ..
इस तरह न आईने के चेहेरे पर मलो
पगडंडीयों पर बिछे हैं
असंख्य कांटें और मुरुम
वे कहते हैं ..मुझसे ..
मंजिल कों पाना है तो हम पर चलों
मोड़ ने कहा –
रुढियों के हाथों लिखे अक्षरों कों
मत पढों
चाहते हो यदि परिवर्तन तो
युद्ध करों
दूर से दृष्टी में
सब कुछ एक समान …
एकरस समाया
क्या सत्य …क्या माया
एक चेतना में सब हैं स्थित
यही मुझे समझ में आया
फिर स्वयं के विषय में ..
जब भी यह सोचा कि
क्या ..मैं अकेला हूँ….
सपना बनकर
किसी एक और व्यक्ति ने
मेरे ही प्रतिरूप की भावनाओं सा
मेरा साथ निभाया
कभी वह मेरे साथ चलती है
बन कर मेरी छाया
कभी मुझसे बाते करती है
मेरे दूसरे मन का
जैसे हो वह .. काल्पनिक साया
तब एक दिन नदी ने कहा
मेरे संग नहीं
अपने भीतर बहों
पर्वत और उसकी गुफाओं ने कहा
अपनी अंतरात्मा में रहों
किशोर कुमार खोरेन्द्र
किया बात है. बहुत खूब .
shukriya
वाह वाह !
shukriya vijay ji