कसूर
एक दिन प्रचंड दुपहरी,
जा रहा था उस दिन मैं
अपने मंज़िल की तलाश में,
मेरी आंखों ने कुछ देखा।
लगा ऐसा कुछ खोज रहा हूँ,
देखा एक भगवान की रचना,
तन पर कोई चीर नहीं,
सर पर कोई साया नहीं।
भरी दुपहरी में चलती लू,
वह लू जैसे कोई दानव,
खोखला कर रहा उसके तन को,
जैसे खा रहा यह दानव।
उसके तन को धीरे धीरे,
उस मानव क्या कसूर
कि वह एक गरीब है!!!!!!!
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रमेश कुमार सिंह
बेहतर रचना !
अच्छी भावुक कविता .
साधुवाद!