कैसे हैं तुम्हारे हाल?
भई और सुनाओ सुन्दर लाल कैसे हैं तुम्हारे हाल?
मैं क्या बताऊँ भाई मेरे बस हाल तो हैं बेहाल!
हमें तोड़ रही गरीबी है, कुछ लोग हैं मालामाल
मैं क्या बताऊँ भाई मेरे बस हाल तो हैं बेहाल!
आ रही योजना नई नई पर क्या बदला है अब तक
पहले थे जैसे आज भी वैसे ही हैं फटेहाल
हमें दिखा के सपना रोटी का, अपनी ही सेंक रहे हैं
हर ओर बेमानी, धोखाधड़ी का हैं फैला जंजाल
हमें तोड़ रही गरीबी है, कुछ लोग हैं मालामाल
मैं क्या बताऊँ भाई मेरे बस हाल तो हैं बेहाल!
एक-एक कर कोड़ी थी जोड़ी, अपने खाने-पीने को
सब लूट लिया जमाखोरों ने, है कर दिया कंगाल
कुछ खा-खा करके फूट रहे, गुब्बारे बन गए हैं
कुछ सूख रहे बिन रोटी को, बनकर रह गए कंकाल
हमें तोड़ रही गरीबी है, कुछ लोग हैं मालामाल
मैं क्या बताऊँ भाई मेरे बस हाल तो हैं बेहाल!
इक तरफ हो रहे सम्मलेन प्रवासी भारतीयों के
इक तरफ छिप रही सच्चाई, अब कौन सी है ये चाल
गिर-गिर के संभाल भीं पाये हम आज तलक भी खुद को
फिर भी कुछ लोग हमें कहते, अरे! खुद को तू संभाल
हमें तोड़ रही गरीबी है, कुछ लोग हैं मालामाल
मैं क्या बताऊँ भाई मेरे बस हाल तो हैं बेहाल!
रो-रो कर आँखें सूख गई, और पसली आ गईं बाहर
क्या कहें के कैसे जी रहे, अब हो गए हैं बदहाल
बस हो गए हैं बदहाल!!!
क्या अब भी जानना चाहो हो कैसे हैं हमारे हाल!!!
कैसे हैं हमारे हाल!!!
-अश्वनी कुमार
कविता कुछ और सुधारी जा सकती थी. वैसे ठीक है.
देश की अर्थ्विवस्था का भंडा फोड़ती है यह कविता.