” आखिर चाहते क्या हैं लोग “
कर लिए हैं हमने कपाट बंद दिल के
बिन इजाजत आकर अहसान जताते हैं लोग
हाँ में हाँ मिला दो खुश रहते
बात कह दो खरी तो तुनक जाते हैं लोग
कोई कट्ठपुतली थोड़े ही हैं जो
जैसे नचाए वैसे नाचे हम
आखिर कोई बताये चाहते क्या हैं ये लोग
अपनी मरजी के हम तो हैं बादशाह
फिर भला जानते हुये भी क्यूँ हुक्म चलाते हैं लोग
मेरे रहने न रहने से न फर्क पड़ेगा किसी को
जानते हैं फिर भी क्यूँ झूठमूट में मनाते हैं ये लोग
कोई किसी के साथ न मरता है न जीता है
फिर किसी के चले जाने पर क्यूँ आँसू बहाते हैं लोग
रिश्तों के दरमियाँ थोड़ा फासला है जरुरी
ज्यादा नजदीकियों में ही खंजर चुभा देते हैं लोग
अपने परायों का जो भेद है दुनिया में
अहम और स्वार्थ में फायदे के लिए मिटा देते हैं लोग
हम बुरे हैं या अच्छे जरुरत नहीं बताने की
अपनी सहुलियत के हिसाब से खुद ही जान लेते हैं लोग
कोशिशें करके थक गये हैं खुशियाँ बाँटने की
पर बेवजह अपने दुखों का कसूरवार अक्सर ठहराते हैैं लोग
प्रवीन मलिक
आप सभी का तहेदिल से शुक्रिया ..
बहुत अच्छी कविता…
बहुत अच्छी कविता है , एक ही बात कहूँगा बैहना ! सुनो सब की मर्ज़ी अपनी करो .
लोगों का काम ही है कहना। कुछ तो लोग कहेंगे।