कौन है ईश्वर?
मित्रो, आप यह तो भली प्रकार जानते हैं की भारतीय समाज चार वर्णों पर आधारित रहा है। यह घोषणा की गई है की परमात्मा ने अपने मुख,भुजाओ,पेट, और पैरो से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र वर्ण को उत्पन्न किया । इसी चतुर्थ वर्ण व्यवस्था के कारण एक वर्ग देवता( भूसुर) कहलाये तो दूसरा पशुओ से बदतर जीवन जीने पर विवश किया गया।
धर्म के धंधेबाजो ने इन चार वर्णों के अलग अलग धर्म भी निर्धारित कर दिए अर्थात ब्राह्मणों के लिए ब्राह्मण धर्म , क्षत्रियो के लिए क्षत्रिय धर्म, वैश्यों के लिए वैश्य और शुद्रो के लिए शुद्र धर्म। स्पष्टत:यह धर्म व्यवस्था वर्ण या यह जाति के करणीय कार्यो पर आधारित है । इस्परकर धर्म के धंधेबाजो ने जन्म के आधार पर ही नहीं कर्म के आधार पर भी समाज को बाँट दिया ,इसमें ब्राह्मण का स्थान सर्वोच्च रहा और शुद्र का सबसे नीचे।
इस वर्ण आधारित धर्म व्यवस्था का सारांश यह है की , बाकी तीनो वर्ण अपने अपने सेवा धर्म से ब्राहमण को प्रसन्न रखे,उन्हें भरपूर दक्षिणा दें ,जप- तप,हवन यज्ञ आदि कर्मकांडो से मनचाही दक्षिणा पाते रहे । इस प्रकार धर्म के धंधेबाजो ने समाज को वर्णों में विभक्त कर उसकी सारी व्यवस्था ब्राहमण के हाथो में सौंप दी। लेकिन समाज से राजा शक्तिशाली होता था और बिना राजा की सहयता से ब्रह्मण वर्ग को व्यवस्था अपने हाथ में लेने और धर्म की दुकानदारी करने में कठिनाई होती। अत: राजा को अपने साथ मिलाना और उस पर अपनी पकड़ रखना ब्राह्मण वर्ग के लिए अनिवार्य हो गया था ।
धर्म का धंधा चलाने के लिए सर्वाधिक आय का स्रोत भी राजा ही हो सकता था । अत: राजा को वश में करने , उसे अपना सेवक बनाने के लिए धर्म के धंधेबाजो ने राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि घोषित कर दिया । ईश्वर के प्रतिनिधि का आदेश भला कौन टाल सकता था ?
इस घोषणा से राजा की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा , उसने धर्म के धंधेबाजो की जय जयकार मचा दी । उन्हें अपना धर्म गुरु मान लिया, देश, राज्य का धर्म गुरु घोषित कर दिया । बड़े बड़े मठ, प्रार्थना स्थल आदि बना के दिए जाने लगे, जमीने ,धन, आभूषण आदि बड़ी मात्रा में दान दिया जाने लगा। दोनों की मिलीभगत से धर्म का धंधा फलने फूलने लगा , आम जनता की हिम्मत नहीं होती थी की धर्म के शोषण के खिलाफ विद्रोह कर सके ।
राजा और ब्राह्मण की इस जुगलबंदी का नमूना में मिलता है –
ना ब्रह्म क्षत्रमृद्वोती नाक्षत्रं ब्रह्म वर्द्धते।
ब्रह्म क्षत्रं च संप्रक्तमिह चामुत्र वर्द्धते ।।
अर्थात- ब्राह्मण के सहयोग के बिना क्षत्रिय कभी वृद्धि नहीं पा सकता और ब्राहमण क्षत्रिय के बिना वृद्धि नहीं प् सकता , ब्राह्मणत्व और क्षत्रित्व दोनों एकत्र होने पर इस लोक और परलोक में वृद्धि पाते हैं।
– केशव
यह लेख आपकी ‘विचारधारा’ के अनुरूप ही है. इसमें सत्य का अंश है, लेकिन पूरी तरह सहमत होना कठिन है.
कहते हैं ज़माना आगे बड़ता रहता है, लेकिन हम वहीँ के वहीँ खड़े हैं और जो धर्मों के कारण हमारे समाज में कुरीतीआन हैं उस की ओर हम देखना सुनना पसंद ही नहीं करते. बाबे संत और बड़े बड़े धर्म गुरु मज़े करते हैं , आसा राम जैसों का कुकर्म सामने आ गिया , जिन का नहीं आया उन की जय हो.