पुल से तुम्हारे घर तक
पुल से तुम्हारे घर तक
पहुंची ..सड़क पर मैं
कभी नही चला हूँ
पुल तक आकर …
लौटते हुए मै …
तुम्हें देखे बिना ….ही …यह मान लिया करता हूँ
कि –
मैंने तुम्हें देख लिया है
मुझे लेकिन हर बार –
यही लगता है की –
बंद खिडकियों के पीछे …
खड़ी हुई तुम –
हर प्रात:
हर शाम
उगते और डूबते हुए …..सूरज की तरह ..मुझे
जरूर देखती रही हो
सड़क के किनारे खड़े वृक्ष भी
अब
मुझे पहचानने लगे है
पत्तियाँ मेरे मन की किताब मे लिखी जा रही
कविताओ कों पढ़ ही लेती है
पुल पर बिछी सड़क कों
मेरी सादगी और भोलेपन से प्यार हो गया है
मेरे घर की मेज पर -जलता हुआ लैम्प
मुझसे पूछता है ..
क्या तुम्हारी कविता कभी समाप्त नही होगी …?
मेरा चश्मा …मेरी आँखों मे भर आये आंसूओ कों
छूना चाहता है
पर उसके पास भी हाथ नही है
काश तुम्हारी आँखों की रोशनी के हाथ लम्बे होते
और तुम मुझे छू पाती ……
किशोर कुमार खोरेन्द्र
वाह वाह !
shukriya