वृक्षों तले छाँव भी…
वृक्षों तले छाँव भी रह रहे किराये से, लगने लगे हैं
शहर में लोग कुछ ज्यादा ही पराये से ,लगने लगे है
मनुष्य होने के अलावा लोग न जाने क्या हो गए हैं
आडम्बर वे कुछ ज्यादा ही अपनाये से,लगने लगे हैं
बरसों पुराने मील के पत्थरों से अब कौन मिले
तन्हाई से घिरे रस्ते भी घबराये से ,लगने लगे हैं
जहाँ में सच कहने पर सजा ए मौत मिलती है
आईने के भीतर हम सुरक्षित साये से रहने लगे हैं
ढके चेहरों के भीतर कितना आतंक छुपा है कौन जाने
प्यार की जगह मानव, बम लगाए से ,लगने लगे हैं
किशोर कुमार खोरेन्द्र