आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 3)
अब एच.ए.एल. के बारे में विस्तार से बताना उचित होगा। हिन्दुस्तान ऐरोनाॅटिक्स लि. एक लड़ाकू हवाई जहाज बनाने की सरकारी फैक्टरी है। यह हालांकि एक सार्वजनिक उपक्रम है, परन्तु रक्षा मंत्रालय के सीधे नियंत्रण में रहती है। इसके कई मंडल (डिवीजन) हैं, जिनमें जहाजों के विभिन्न भागों का निर्माण किया जाता है। इसका मुख्यालय बंगलौर में है और बंगलौर के अतिरिक्त हैदराबाद, लखनऊ, कानपुर, कोरापुट (उड़ीसा) तथा कोरबा (जिला अमेठी, उ.प्र.) में इसके मंडल हैं। लखनऊ मंडल में मुख्य रूप से काॅकपिट में लगायी जाने वाली इजेक्शन सीट तथा पहियों और बे्रक का निर्माण किया जाता है। इजेक्शन सीट उस सीट को कहते हैं, जिस पर बैठकर पायलट लड़ाकू जहाज को उड़ाता है। उसमें यह विशेषता होती है कि कोई खतरा होने पर वह एक बटन दबाते ही सीट सहित आकाश में चला जाता है और उसमें लगा हुआ पैराशूट खुल जाता है। पैराशूट की सहायता से पायलट जमीन पर सुरक्षित उतर आता है।
लखनऊ मंडल की फैक्टरी में बड़ी-बड़ी मशीनें लगी हुई हैं। ऐसी मशीनें मैंने पहले कभी नहीं देखी थीं। उनमें कई मशीनें तो ऐसी हैं, जो पूरी तरह कम्प्यूटर से चलती हैं। आप उनमें लोहे का टुकड़ा लगाकर चले जाइए और मशीन अपने आप पुर्जा तैयार कर देगी।
हर साल 17 सितम्बर को विश्वकर्मा पूजा के दिन एच.ए.एल. में बड़ा समारोह मनाया जाता है। हर विभाग में यह पूजा की जाती है और प्रसाद बाँटा जाता है। पहले इस दिन फैक्टरी के दरवाजे आम लोगों के लिए भी खोल दिये जाते थे और उन्हें भी प्रसाद दिया जाता था। परन्तु जब से आतंकवाद बढ़ा है, तब से फैक्टरी में आम लोगों का आना बन्द कर दिया गया है। विश्वकर्मा पूजा अभी भी नियमित होती है। मेरी सेवा के पहले वर्ष 1983 में 17 सितम्बर के दिन मेरी माँ, पिताजी तथा बड़ी भतीजी श्वेता (जो उस समय 3-4 साल की थी) फैक्टरी देखने आये थे और देखकर आश्चर्यचकित रह गये थे।
एच.ए.एल. में मैंने जिस विभाग में अपनी सेवाएँ देना प्रारम्भ किया था, उसका नाम था ई.डी.पी. सेक्शन, जिसे बोलचाल में ‘कम्प्यूटर सेंटर’ कहते थे। उस समय यह विभाग नया ही बना था और एक अलग सुन्दर भवन में था। उसमें कम्प्यूटर भी नया लगा था और हम अधिकांश अधिकारी भी नये ही थे। इससे पहले एक पुराना कम्प्यूटर था, जिस पर केवल एक कार्य किया जाता था- इंसेंटिव (प्रलोभन) की गणना करने का। यह एक ऐसी स्कीम थी, जिसमें अधिक कार्य करने वाले कर्मचारी को पारितोषिक मिलता था। जो जितना अधिक कार्य करता था, उसे उतना ही अधिक पारितोषिक दिया जाता था। नया कम्प्यूटर जो आया उसका नाम शायद बरोज 3700 था। यह एक बड़ा कम्प्यूटर था, जिसमें एक साथ 10-12 टर्मिनल कार्य करते थे। डाटा प्रविष्टि का कार्य डी-10 नामक मशीनों पर किया जाता था।
हमारा सेक्शन वास्तव में प्रबंधन सेवा विभाग (मैनेजमेंट सर्विसेज डिपार्टमेंट) का एक भाग था, जिसके वरिष्ठ प्रबंधक थे श्री आर.के. तायल, जो मेरे इंटरव्यू के समय उपस्थित थे और काफी प्रश्न पूछ रहे थे। कम्प्यूटर सेक्शन के प्रबंधक थे श्री शैलेश्वर आचार्य, जिन्हें सब लोग ‘दादा’ कहा करते थे, क्योंकि वे बंगाली थे। हालांकि कम्प्यूटर के बारे में उनका ज्ञान उतना ही था, जितना मुझे बंगाली का है, परन्तु प्रबंधकीय कार्यों में वे बहुत कुशल थे। वे अनुशासन प्रिय भी थे। उनकी सहायता करने के लिए एक प्रबंधक श्री के. रमेश राव तथा दो उप-प्रबंधक श्री राकेश कुमार श्रीवास्तव एवं श्री अरुण प्रकाश गोयल थे। इनमें से श्री गोयल जल्दी ही चले गये थे।
श्री के. रमेश राव, जैसा कि उनके नाम से स्पष्ट है, दक्षिण भारतीय थे। वे काफी सज्जन थे और उनके साथ मेरी अच्छी ट्यूनिंग यानी पटरी बैठती थी। उनका ज्ञान भी अच्छा था। बाद में वे प्रोन्नत होकर पहले कानपुर मंडल में और फिर बंगलौर मंडल में चले गये। एच.ए.एल. छोड़ने के कई साल बाद एक बार कानपुर में मुझे उनके दर्शनों का सौभाग्य मिला था। उस समय वे कानपुर मंडल में ही पदस्थ थे और मैं इलाहाबाद बैंक में आ गया था।
श्री राकेश कुमार श्रीवास्तव, जिन्हें सभी लोग आर.के.एस. कहा करते थे, भी बहुत योग्य और सज्जन थे। प्रारम्भ में उन्हें शायद मेरी योग्यता में कुछ संदेह था, इसलिए शुरू में ही उन्होंने एक बड़ा और टेढ़ा काम मुझे दे दिया था। जब मैंने वह कार्य सफलतापूर्वक कर दिखाया, तो वे मुझसे काफी प्रभावित हुए थे। उनके साथ मेरे सम्बंध अन्त तक मधुर बने रहे, हालांकि वे मुझसे पहले ही एच.ए.एल. छोड़ गये थे। वे पहले हिन्दुस्तान मोटर्स में बम्बई गये थे और बाद में एस.आई.डी.बी.आई. बैंक (सिडबी) में अच्छे पद पर लखनऊ लौटे थे। यह मेरा दुर्भाग्य रहा कि कई बार अवसर आने पर भी मैं बाद में उनके दर्शन नहीं कर पाया। वे जून 1983 में ठीक उस रात्रि को एक पुत्री के पिता बने थे, जिस दिन भारत ने पहली बार एक-दिनी क्रिकेट का विश्व कप जीता था। उस कप को तब प्रुडेंशियल कप कहा जाता था, इसलिए उन्होंने अपनी पुत्री का नाम ‘प्रुडी’ रखा था। उसकी पहली वर्षगाँठ पर हुई पार्टी में मैं भी शामिल हुआ था। संयोग से श्री राकेश कुमार श्रीवास्तव मेरे ज.ने.वि. के सहपाठी और मित्र श्री विजय शंकर प्रसाद श्रीवास्तव के सगे साढ़ू लगते हैं।
(पादटीप : लगभग 30 वर्ष बाद श्री राकेश कुमार श्रीवास्तव से लखनऊ में ही मेरी भेंट हो चुकी है और अब वे अवकाश प्राप्त करके मुंबई में रह रहे हैं.)
यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि एच.ए.एल. में अधिकारियों की श्रेणियों को ग्रेड कहा जाता है। सबसे छोटे अधिकारी को ग्रेड 1, उससे बड़े को ग्रेड 2, उप प्रबंधक को ग्रेड 3, प्रबंधक को ग्रेड 4, वरिष्ठ प्रबंधक को ग्रेड 5 तथा मुख्य प्रबंधक को ग्रेड 6 कहा जाता है। इससे ऊपर भी ग्रेड होते हैं। प्रारम्भ में हमारे सेक्शन में ग्रेड 4 के 2, ग्रेड 3 के भी 2, ग्रेड 2 के 6 और शेष 10-12 अधिकारी ग्रेड 1 के थे, जिनमें मैं भी शामिल था। इनमें से उस समय केवल 4-5 अधिकारी ही विवाहित थे, शेष सबके विवाह बाद में हुए थे।
ग्रेड 4 और 3 के अधिकारियों का परिचय मैं ऊपर दे चुका हूँ। यहाँ शेष अधिकारियों के नामों का उल्लेख करना उचित होगा। ग्रेड 2 के अधिकारी थे सर्वश्री विष्णु कुमार गुप्त, सुनील कुमार मित्तल, राजीव किशोर, हरमिंदर सिंह, नरेन्द्र कुमार तथा रघुनाथ प्रसाद बाजपेई। इनके साथ मेरे अलावा ग्रेड 1 के अधिकारी थे सर्वश्री सैयद शकील परवेज चिश्ती, आर.के. पाणी, संजय मेहता, शशिकांत लोकरस, ज्ञानेन्द्र कुमार गुप्ता, आलोक खरे, कु. किरण मालती अखौरी, गौरीशंकर दास और प्रमोद मोहन चौबे। इनके अलावा श्री अजय अग्रवाल और श्री राजीव श्रीवास्तव कोरबा मंडल के थे और हमारे ही सेक्शन में बैठते थे, क्योंकि उनका मंडल पूरी तरह तैयार नहीं था। बाद में कुछ अन्य अधिकारियों ने हमारे सेक्शन में अपना स्थानांतरण कराया, उनमें प्रमुख थे सर्वश्री रवि कुमार आनन्द, सुनील कुमार सिंह तथा अनिल कुमार अग्रवाल।
इन अधिकारियों के अतिरिक्त कम्प्यूटर सेक्शन में एक बड़ी संख्या आॅपरेटरों की भी थी, जो मुख्य रूप से डाटा प्रविष्टि का कार्य किया करते थे। मैं यहाँ उनके नामों का उल्लेख कर रहा हूँ- सर्वश्री राम सिंह, तारक नाथ सरकार, गंगा प्रसाद पांडेय, राम कृष्ण त्रिवेदी, चन्द्र प्रकाश जायसवाल (जिनको मैं राम लोटन कहता था), अशोक कुमार दुबे, देव प्रसन्न गुप्ता, प्रेम कुमार सिंह गौड़, सरदार कुलदीप सिंह, नीलेश कुमार, बी.एल. गुप्ता, कृष्ण चन्द्र पंत, विजय कुमार लाल, के.के. पाण्डे, एस.ए.एच. रिजवी, श्रीमती कैलाश विरमानी, श्रीमती निर्मला दिनकर, श्रीमती के.सी. उषा और श्रीमती उषा पांडेय। अन्तिम तीन महिलाओं के पतिदेव भी हमारी फैक्टरी के विभिन्न विभागों में कार्य करते थे। बाद में 8-10 लड़कों का एक नया समूह भी आॅपरेटर बनकर आया। उनके नाम थे सर्वश्री संजय नागर, पी.के. पांडे, मुकेश खरे, प्रमोद कुमार, शंकर जयराज, सुशील द्विवेदी, आर.के. धवन, साकेत बिहारी त्रिपाठी तथा हृदेश श्रीवास्तव। संभव है कि एकाध नाम मैंने गलत लिख दिया हो या कोई नाम छूट गया हो। उसके लिए क्षमा चाहता हूँ।
हमारे सेक्शन में दो चपरासी भी थे। एक श्री अशोक कुमार पांडे शुरू से थे और दूसरे श्री श्याम लाल बाद में आये थे।
इन सभी के बारे में विस्तार से लिखना सम्भव नहीं है, परन्तु आवश्यकता के अनुसार आगे अवश्य लिखूँगा। मुझे इस बात का गर्व है कि सभी कर्मचारियों/आॅपरेटरों के साथ मेरे सम्बंध बहुत मधुर और मित्रतापूर्ण थे। इसके विपरीत अन्य कई अधिकारियों का व्यवहार इनके प्रति प्रायः अच्छा नहीं रहता था, जिससे टकराव की स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती थीं। मैंने अपने प्रभाव से कई बार ऐसे टकरावों को बचाया था।
(जारी…)
विजय भाई , लख्नाऊ की जानकारी मिल गई , जिस को हमारे टीचर विदिया परकाश अक्सर हंस हंस कर बताते कि लख्नाऊ के नवाब बस कहने को ही नवाब हैं अब उन में नवाबी जैसा कुछ रहा नहीं. बहुत अच्छा लग रहा है.
आपके टीचर जी सही कहते थे. अब नबाबी ख़त्म हो गयी है. उसकी निशानियाँ भी ख़त्म होती जा रही हैं.
आभार भाई साहब. मेरी जिंदगी के बहुत से पहलू अभी सामने आयेंगे, पढ़ते जाइये और मुझे आशीर्वाद देते जाइये.
नमस्ते। आज की किश्त से HAL के बारे में और लखनऊ में होने वाले कार्य के बारे में जानकार प्रसन्नता हुई। आपके वरिष्ठ एवं कनिष्ठ सहकर्मियों की जानकारी और सबसे मधुर संबंधों का होना भी संतोषप्रद एवं रोचक है। देश की सुरक्षा से जुड़े प्रतिष्ठान में काम करने का अपना ही आनंद और सुकून होता है। सारा विवरण एक उपन्यास या सत्यकथा की भांति रोचक एवं भविष्य की घटनाओं के प्रति उत्सुकता उत्पन्न करने वाला है। अगली किश्त की प्रतीक्षा है।
बहुत बहुत आभार, मान्यवर !