कंठस्थ
तुम
मेरा वह चश्मा हो
जिसके बिना
मैं देख नहीं सकता
तुम
मेरी वह कलम हो
जिसके बिना
मैं लिख नहीं सकता
तुम
मेरी वह डायरी हो
जिसके पन्नों में
मैं अक्षरस: अंकित रहता हूँ
तुम
चाय में शक्कर की तरह
घुली हुई रहती हो
मेरे मन के खेतों में
गन्ने की तरह उगी हुई रहती हो
गमलों में तुम्हे
मैं प्रतिदिन खिलते हुए देखता हूँ
तुम शीतकालीन गुनगुनी धूप हो
शरद ऋतू की मधुर ज्योत्सना हो
तुम्हारे कारण मेरे जीवन में
इसलिए
गर्दिश का अँधेरा टिक नहीं पाता
तुम्हारी उदारता से अभिभूत
मेरे अंतर्मन का
तुम वह खूबसूरत हिस्सा हो
जिसकी वजह से
पतझड़ के मौसम का
मुझ पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ पाता
जेठ की भीषण गर्मी
मुझे झुलसा नहीं पाती
रास्ते में बिखरे हुए
कांच के टुकड़ों
या बबूल के नुकीले काँटों से
मेरे पाँव सुरक्षित बच जाया करते हैं
तुम मेरे लिए सारगर्भित विचार हो
सकारात्मक चिंतन हो
जिनसे मुझे यह बोध हुआ है कि
मैं जन्म और मत्यु से परे हूँ
तुम कभी न समाप्त होने वाली
मेरी शाश्वत चेतना हो
गति हो ,… प्रवाह हो
इसीलिए मैं
कमल के पुष्पों से सुसज्जित
सरोवर की तरह प्रफुल्लित रहता हूँ
तुम स्वर हो
तुम व्यंजन हो
और मैं उनसे जुड़कर बना
एक सार्थक शब्द हूँ
मुझे, तुम महावाक्य की तरह कंठस्थ हो
अटूट प्रेम के अविरल भाव की तरह
तुम्हें
मेरे ह्रदय ने आत्मसात कर लिया है
किशोर कुमार खोरेन्द्र
किशोर भाई , गज़ब की कविता , आशावादी और अटूट विशवास , मज़ा आ गिया.