आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 8)
कु. किरण मालती अखौरी हमारे विभाग में एक मात्र महिला अधिकारी थीं। वे बिहार की रहने वाली थीं। उनके पिताजी डाक्टर थे और माँ केरल की थीं, जिनको वह ‘अम्मा’ कहती थी। किरण देखने में बहुत सुन्दर लगती थीं। उनकी आँखें बहुत सुन्दर थीं। उनकी आवाज भी काफी मीठी थी (जैसा कि दूसरे लोग बताते थे, क्योंकि मैं तो सुन नहीं सकता था), परन्तु उनमें बिहारियों जैसा अक्खड़पन पर्याप्त मात्रा में था। हमारी आपस में बहुत पटती थी और मीठी-मीठी नोंक-झोंक भी होती थी। जब हम खाली होते थे, तो घंटों तक बातें करते रहते थे। उनमें सबसे अच्छी बात यह थी कि कभी नाराज भी हो जाती थीं, तो थोड़ी देर बाद ही खुश भी हो जाती थीं।
एक बार दास बाबू ने उनकी मेज के ड्राॅअर में चुपचाप कुछ चाकलेट और टाॅफी रख दी थीं। किरण ने समझा कि ये मैंने रखी हैं, तो गुस्सा हुईं। मैंने बताया कि मैं ऐसे काम नहीं करता। अगर कुछ देना होगा तो सामने दूँगा। बाद में उन्हें पता चला कि यह काम दास बाबू ने किया था, तो उनकी नाराजगी दूर हो गयी। वैसे वे मुझे चिढ़ाने के मौके तलाशा करती थीं। एक बार वे अपने घर से प्लास्टिक का छोटा सा बन्दर लेकर आयीं और मुझसे कहा कि यह तुम्हारा मिनियेचर (छोटा रूप) है। मैंने पूछा कि क्या तुम अपने घर में भी मेरे बारे में सोचती रहती हो, तो वे शरमा गयीं। फिर मैंने कहा कि यदि तुम बच्चों जैसी हरकतें करोगी, तो मैं तुम्हें ‘गुड़िया’ कहा करूँगा। उसके बाद मैं उन्हें प्रायः गुड़िया ही कहता था। मेरे अलावा और कोई उन्हें सामने गुड़िया कहने की हिम्मत नहीं करता था, हालांकि पीठ पीछे सभी उन्हें गुड़िया ही कहते थे।
नये आपरेटर लड़कों ने उनके ऊपर एक छोटी सी तुकबन्दी भी बनायी थी-
किरण मालती, काम टालती।
अपने सिर में जुएँ पालती।।
उसके चेहरे की मुस्कान।
मुर्दे में भी भर दे जान।।
वे ऐसी हरकतों का बुरा नहीं मानती थीं और हँसकर टाल जाती थीं। एक बार वे कुछ खोज रही थीं। मैंने पूछा- क्या ढूँढ़ रही हो? वे बोलीं- तुम्हारे लिए दुल्हन। मैंने कहा- ‘उसे ढूँढ़ने की कोई जरूरत नहीं, मैंने पहले से ही पसन्द की हुई है।’ तो वे बोलीं- ‘वो तुम्हारी किस्मत में नहीं है।’
किरण कुल तीन बहनें थीं और शायद एक भाई भी था। उनके पिताजी डाक्टर थे और कहीं तैनाती के समय एक मलयालम नर्स से प्रेम विवाह किया था। इसका असर बच्चों पर पड़ना ही था। उनको दोनों बड़ी बहनों ने भी प्रेम विवाह किये थे- एक ने किसी दक्षिण भारतीय के साथ और दूसरी ने किसी मुसलमान के साथ। वे स्वयं कायस्थ थीं। मैं उनसे मजाक में कहता था कि तुमने भी किसी अफ्रीकी, ईसाई या पारसी से शादी क्यों नहीं कर ली? तो वे बोलती थीं- कोई मिला नहीं।
वहाँ के कम्प्यूटरों में ऐसी व्यवस्था थी कि किसी बटन में कोई शब्द या वाक्य भर दें, तो उस बटन को एक बार दबाने भर से वह पूरा शब्द या वाक्य टाइप हो जाता था और यदि बटन को दबाये रखा जाये तो वही अक्षर, शब्द या वाक्य बार-बार टाइप होता रहता था। एक दिन मैंने एक बटन में अंग्रेजी में ‘गुड़िया’ शब्द भर दिया और उस बटन को दबाकर अटका दिया, तो वह अपने आप लगातार ‘गुड़िया-गुड़िया’ टाइप करता रहा। तभी एक महिला आपरेटर श्रीमती कैलाश विरमानी ने किरण से जाकर कह दिया कि यह तो तुम्हारे नाम की माला जप रहा है। इस पर सब लोग खूब हँसे थे। वे भी थोड़ा नाराज हुई थीं और मुझसे कहा था- ‘तुम बहुत खराब हो।’ हालांकि थोड़ी देर बाद ही उनकी नाराजगी दूर हो गयी थी, जैसा कि हमेशा होता था।
एक बार एक आॅपरेटर महिला श्रीमती निर्मला दिनकर ने उनका नाम किसी इंजीनियर लड़के के साथ जोड़कर उनको बदनाम करने की कोशिश की थी। शायद इसमें कुछ तथ्य रहा हो। इस पर वे बहुत नाराज हुईं थीं और हफ्तों तक गुम-सुम रही थीं। मुझे तब पता नहीं था कि क्या कारण है। मैंने उनसे बात करने की कोशिश की, तो वे टाल गयीं। मुझसे उनकी सुस्ती सहन नहीं हुई और एक कविता लिख डाली, जो निम्न प्रकार है-
कहाँ खो गयी मुस्कराहट तुम्हारी?
कहाँ खो गयी खिलखिलाहट तुम्हारी?
वो चन्दन की, गुल की, बहारों की खुशबू
कहाँ खो गयी शोख आहट तुम्हारी?
तेरे शुभ्र चेहरे पै ये गम है किसका?
तेरी सुस्त आँखों में मातम है किसका?
बुलाते हैं किसको ये मोती से आँसू?
तेरे सुर्ख होठों पे है नाम किसका?
तेरे गम से सारा जहां रो रहा है,
जमीं रो रही आसमां रो रहा है।
रोती है बुलबुल, गुम सुम है कोयल
गुल, आशियां, बागबां रो रहा है।।
जब यह कविता मैंने सेक्शन के कुछ लोगों के बीच गाकर सुनाई तो सब वाह-वाह कर उठे थे।
मैं ऊपर लिख चुका हूँ कि उनकी आँखें बहुत सुन्दर थीं। मन करता था कि उनकी आँखों को देखता ही रहूँ। उनकी आँखों के ऊपर मैंने एक कविता लिखी थी, जिसकी कुछ पंक्तियाँ मुझे अभी तक याद हैं-
जाने क्या कहते हैं नैन तुम्हारे।
इनमें झीलों सी गहराई, जिसकी कोई थाह नहीं है।
शान्त सागरों का पानी सा, जिसमें मुखर प्रवाह कहीं है।।
महा शून्य में जाने क्या खोजा करते हैं ये कजरारे।
जाने क्या कहते हैं नैन तुम्हारे।।
यह कविता मैंने किरण को भी दिखायी थी, पर उन्होंने कुछ कहा नहीं।
उस समय तक उनकी उम्र 25 को पार कर गयी थी और चेहरे पर कुछ रूखापन सा आने लगा था। तभी एक अच्छे कायस्थ परिवार में उनका विवाह हो गया। लड़का मैरीन इंजीनियर था, जो साल में 10 महीने पानी के जहाज (शिप) पर रहता था और 2 महीने की छुट्टी पर घर आता था। उनका नाम मुझे याद है- श्री अमिताभ माथुर। उनकी शादी लखनऊ के पंचतारा होटल क्लार्क्स अवध में हुई थी, जिसमें उस समय प्रति थाली रु. 500 का खाना था। शायद खर्च बचाने के लिए ही उन्होंने हमारे सेक्शन से किसी को ठीक से नहीं बुलाया, केवल एक कार्ड भिजवा दिया था। इसलिए कोई भी उनके विवाह में नहीं गया।
लेकिन विवाह के बाद जो रिसेप्शन हुआ, उसमें उन्होंने हम सभी को आग्रहपूर्वक आमंत्रित किया। अतः हम सब उसमें गये थे। वहीं उनके पति से परिचय हुआ। शादी के एक साल के अन्दर ही वे एक सुन्दर प्यारी सी बच्ची की माँ बन गयी थीं। जब मेरी बहिन गीता और मम्मी मेरे साथ लखनऊ में थीं तो किरण एक-दो बार हमारे घर भी आयी थीं।
शादी के बाद जब उनके पति वापस शिप पर चले गये थे, तो वे कार से आॅफिस आती थीं। कार ड्राइवर चलाता था। एक बार मैंने मजाक में कहा था- ‘तुम ड्राइवर के साथ मत आया करो, नहीं तो किसी दिन वह कार और तुम्हें दोनों को ले भागेगा। 50 हजार की तो कार और 50 हजार की तुम। एक लाख किसको बुरे लगते हैं?’ उनकी प्रतिक्रिया थी- ‘मैं बस 50 हजार की? बस??’
एक मजेदार बात और है। ऊपर मैं बता चुका हूँ कि हमारे सेक्शन में अधिकारियों और आॅपरेटरों की संख्या काफी थी, परन्तु कम्प्यूटर टर्मिनल कम थे। इसलिए जब मैं जनरल शिफ्ट में जाता था, तो मुझे कम्प्यूटर खाली मिलना मुश्किल होता था। काम बहुत अर्जेण्ट होने पर ही कम्प्यूटर मुझे दिया जाता था। लेकिन इस समस्या का एक हल मैंने निकाल लिया। वह यह कि हर शिफ्ट के लोग प्रायः 1 घंटे बाद काम शुरू करते थे और अपनी शिफ्ट समाप्त होने से एक घंटे पहले ही काम बन्द कर देते थे। इसी तरह लंच के पहले और उसके बाद में भी आध-पौन घंटा बरबाद करते थे। इस प्रकार दोपहर साढ़े बारह बजे के बाद कोई न कोई कम्प्यूटर अवश्य खाली रहता था। इसलिए मैंने अपने मैनेजर श्री रमेश राव की आज्ञा से दोपहर साढ़े बारह या एक बजे जाना प्रारम्भ किया और सायं सात या साढ़े सात बजे तक काम करके लौटता था। इस तरह मैंने 1 बजे से साढ़े सात बजे तक की एक नई शिफ्ट बना ली थी। इसको मैं ‘के’ शिफ्ट कहता था। यहाँ ‘के’ का अर्थ था ‘किरण’ अर्थात् गुड़िया। मैं कई महीनों तक लगातार ‘के’ शिफ्ट में जाता रहा। इस शिफ्ट में काम भी ज्यादा होता था। बाद में जब काम का बोझ कम हो गया, तो मैंने ‘के’ शिफ्ट में जाना बन्द कर दिया और जनरल शिफ्ट में जाने लगा।
जब किरण की बच्ची थोड़ी बड़ी हुई और स्कूल भी जाने लगी, तो उनके लिए नौकरी करना कठिन हो गया, क्योंकि उनकी सास को कैंसर था। वे लगातार छुट्टियों पर चल रही थीं। वे एच.ए.एल. छोड़ना चाहती थीं, परन्तु उन्होंने 5 साल का बाॅण्ड भर रखा था, इसलिए इतने दिनों तक नौकरी करना अनिवार्य था, नहीं तो बड़ी रकम देनी पड़ती। वे रकम देना नहीं चाहती थीं, इसलिए बिना वेतन के छुट्टी पर चलती रहीं। अन्त में एच.ए.एल. ने ही उन्हें बाॅण्ड से मुक्त कर दिया और वे चली गयीं। उसके बाद मेरी उनसे मुलाकात नहीं हुई। बाद में मैंने भी एच.ए.एल. छोड़ दिया था। कुछ समय बाद मुझे पता चला कि किरण अपने मुसलमान जीजा के पास कनाडा चली गयी हैं। बाद में शायद वे वापस आ गयीं। अब कहाँ हैं, मुझे ज्ञात नहीं। शायद लखनऊ में ही हों।
(जारी…)
आपके सुन्दर लेखन प्रवाह के कारण आत्मकथा काफी मनोरंजक बन पड़ी है. सदैव एक रहस्य का पुट रहता है.
धन्यवाद, स्वर्णा जी. मेरा परिश्रम सफल हुआ.
विजय भाई , आप के काम के साथ साथ किरण से दोस्ती अच्छी लगी , काम तो काम ही होता है लेकिन अगर कुछ अछे पुर्ष या लड़किओं का साथ मिल जाए तो जिंदगी अच्छी बीत जाती है , आप की लिखी कवितायेँ जवानी के वोह जज्बे सुनाती हैं.
बहुत सही कहा, भाईसाहब आपने। ऐसी यादें कभी भुलाई नहीं जा सकतीं।
padha
धन्यवाद!