उपन्यास : देवल देवी (कड़ी 34)
30. मधुपर्व
गुर्जर राजकन्या देवलदेवी के दुर्भाग्य के आरंभ से ठीक पूर्व जब वह यादव युवराज शंकरदेव के प्रेमपाश में बंधी थी, उसके स्वप्नों में डूबती-उतरती थी, ठीक उसी समय उसी जगह जहाँ देवलदेवी को कैद करके भेजा जा रहा था; दिल्ली में एक अन्य युवती किसी युवक के प्रेमपाश में बंधी जा रही थी, उसके स्वप्नों में डूब-उतर रही थी।
1305 में दिल्ली पति सुल्तान ने जालोर पर भीषण आक्रमण किया, राजा कनेर देव पराजित हुआ और संधि के लिए बाध्य हुआ। अपार धन-दौलत और मालगुजारी की प्राप्ति दिल्ली सल्तनत को हुई। राजा की कोई पुत्री न थी, सो अलाउद्दीन राजा के पुत्र राजकुमार विक्रम को बंधक के रूप में दिल्ली के दरबार में ले आया।
यह जालोर का राजकुमार विक्रम सिंह ही था जिस पर दिल्ली के शाही हरम की एक युवती मोहित हो गई। उस पर दिलो-जान न्यौछावर कर बैठी, और उसके रब्वावो उसकी चश्म को सुकुन बख्शने लगे। यह शाही हरम की युवती कोई और नहीं बल्कि सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की पुत्री शहजादी फिरोजा थी। शहजादी फिरोजा एक तरफ जहाँ बेहद खूबसूरत थी, वहीं उसे तीर-तलवार चलाने में बेहद मजा आता था। कभी-कभी वह शिकार पर भी निकल जाती थी। उसके साथ उसके हरम की मुख्य बांदी गुलेबेहिश्त रहा करती थी।
ऐसे ही एक दिन जब वह दिल्ली के पास के बियावां में शिकार का आनंद ले रही थी, वहाँ पर जालोर के राजकुमार विक्रम भी आ गए। शहजादी अपने अन्य गुलामा, बांदियों से इस वक्त अलग थी। राजकुमार विक्रम के साथ घोड़ा दौड़ाते हुए वह उनके साथ निकल गई। राजकुमार विक्रम शहजादी को लेकर अपने राज्य की सीमा में पहुँच गया। राजधानी न जाकर वह अपने एक सामंत मित्र के यहाँ रुका। राजकुमार को डर था शायद उसके पिता और राज्य की प्रजा उसकी पत्नी के रूप में एक यवन कन्या को स्वीकार नहीं करेंगे। अतः राजकुमार विक्रम ने सुअवसर आने तक अपने मित्र के पास रुकने का निर्णय लिया।
शहजादी को विशेष कक्ष में रोका गया। घोड़े के सफर से आई थकन के कारण वह शय्या पर लेटते ही निद्रामग्न हो गई। दो घड़ी रात जाने के बाद कुमार अपनी प्रियतमा के पास आए। शयन करती यवन शहजादी की अनिंद्य सुंदरता उनके तन-मन को हरने लगी। उनके काले-काले नयन, बिना डोरी के कमान की तरह भौहें, गहन केस राशि और उससे बिछड़कर कपोल पर खेलती एक लट। स्निग्ध लाल अधर, श्वांस के साथ उठते-गिरते युग्ल यौवन कलश, मुट्ठी भर की कमर और पुष्ट नितंब के नीचे केले के तने की तरह जाँघे और सूर्य की रजत रश्मियों से चमकते चंदन सी महक वाले पाँव।
शहजादी का रूप-श्रृंगार देखकर राजकुमार विक्रम का हृदय भी श्रृंगार से ओत-प्रोत हो गया। वह धीरे-धीरे आगे बढ़े और कांपते हाथों से उन्होंने जैसे ही शहजादी के केशों को छुआ, वह चैंककर शय्या से उठ गई। जब शहजादी फिरोजा अपने वस्त्र संभाल रही थी राजकुमार विक्रम ने उन्हें अपने अंकपाश में भर लिया। राजकुमार ने शहजादी के कपोल पर एक चुंबन लेकर उन्हें रोमांचित कर दिया। शहजादी ने कोई विरोध नहीं किया। वरन् वह निढ़ाल अपने प्रियतम के वक्ष से लिपट गई। इस समय शहजादी ने एक अलौकिक सुख का अनुभव किया।
कुमार विक्रम की ग्रीवा से लगी सहमी-सकुची शहजादी बोली ”एक अजीब सा खुमार और डर इस वक्त हमारे जेहनो दिल पर हावी है, हम आपकी मुहब्बत में इस कदर डूबे हैं कि हमें आपके सिवा न कुछ दिखाई देता है न सुनाई देता है। हम बस आप के होकर मुहब्बत में खो जाना चाहते हैं। पर एक फिक्र हमें सुकून नहीं लेने देती।“
”क्या प्रिये?“ राजकुमार विक्रम शहजादी को अपने वक्ष में और अधिक भींचते हुए बोले।
”राजकुमार, हमने आपको अपना शोहर अपना सरताज कुबूल कर लिया है, पर यही कहीं आपके लिए मुसीबत का सबब न बन जाए। अब्बा सुल्तान का कहर कहीं आपकी दुनिया न उजाड़ दे। यह ख्याल आते ही मैं लरज-लरज जाती हूँ मेरे आका, कि हमने आपको दोहरी मुसीबत में डाल दिया है।“
”कैसी दोहरी मुसीबत शहजादी फिरोजा?“
”आप तो जानते हैं मैं यवन शहजादी हूँ। आपकी बेगम के रूप में आपके लोग हमें कभी कबूल नहीं करेंगे, और सुल्तान आपको काफिर समझते हैं उनके हरम से उनकी शहजादी को यूँ लिवा लाना उन्हें बेहद नागवार गुजरेगा या अल्लाह कभी-कभी हमें लगता है हमने आपको राह का भिखारी बना दिया है, हमें मुआफ करें।“
इतना कहकर वह दिल्ली सल्तनत की शहजादी फफक-फफककर रो पड़ी। उसकी सुंदर आँखों से अश्रु बह-बहकर उसके गुलाबी कपोलों पर लुढ़कने लगे ओर रजत कणों से बना उसका बदन हिचकियों के आने से सिहरने लगा। राजकुमार को उनकी दशा देखकर अत्यंत दुख हुआ है। जितना शहजादी उनसे प्रेम करती थी उतना ही वह भी उन्हें प्रेम करते थे। उन्होंने सोचा अपने साथ शहजादी को लाकर उन्होंने कोई त्रुटि तो नहीं की। कहाँ शाही हरम की पली हुई शहजादी जिसके एक इशारे पर हजारों-लाखों दासियाँ नतमस्तक हो जाती थीं, उसे यूँ राहों की धूल और चमकते सूरज की आग में उन्होंने झोंक दिया है। पर अब तीर कमान से निकल चुका था।
शहजादी के केशराशि को सहलाते हुए बोले, ”आप अधिक चिंतित न हों। हमारे इतिहास में एक उदाहरण है, सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने यवन राजकुमारी एथेना से विवाह किया था। और चाणक्य के ब्राह्मणत्व ने उस विवाह को आशीर्वाद प्रदान किया था। संभव है जालोर की प्रजा और बुद्धजीवी भी हमारे विवाह को उसी रूप में देखेंगे, स्वीकार करेंगे और हमें अपनत्व का आशीर्वाद देंगे।“
”पर सुल्तान और अजीम लश्कर का कहर जो किसी तूफान की तरह आपको अपने जद में लेंगे। ओह हम उस भयावह मंजर को सोचकर ही परेशान हैं। मुहब्बत के जोश में यह हमने क्या कर डाला, अपने सरताज को ही जमीदोंज होने का बंदोबस्त। या मेरे अल्लाह, हमारी हिफाजत कर।“
”आप अपने आपको दोष देकर यूँ स्वयं को कष्ट न दें। दोष केवल आपका ही नहीं है शहजादी, उसमें हम भी भागीदार हैं। और प्रेम करना कोई दोष नहीं। प्रेम तो पवित्र है युगों-युगों से। प्रेम का अर्थ बस प्रेम ही है उसमें न कोई यवन है न कोई आर्य, उसमें न कोई ब्राह्मण है न कोई शूद्र, उसमें न कोई हिंदू है न कोई मुस्लिम, उसमें सब समान है एक रूप में। प्रेम धर्म और जाति के जटिल बंधनों से बहुत ऊपर हैं। इसलिए शहजादी शोक को त्यागो, आज की रात तो मिलन की रात है, आज हमारी सुहाग रात है।“
राजकुमार विक्रम की बात सुनकर शहजादी की आँखों के अश्रु सूख गए और एक मदिर मुस्कान उसके रक्तिम अधरों पर तैर गई। उनकी इस मुस्कान में यकीनन वस्ल का आमंत्रण झलक रहा था। उन्होंने अपनी दोनों मरमरी बाँहें राजकुमार की तरफ फैला दी, राजकुमार जब उन बाँहों में समाये तो शहजादी बोली ”हमारा दिल भी आपके वस्ल का न जाने का मुंतजिर था, आज आप हमारी ख्वाहिश बनके हमारे करीब हैं। आज शब शहजादी फिरोजा अपनी रूह, अपना जिस्म इस शबेअव्वली में आप पर निसार करती है। उस घड़ी राजकुमार ने उन्हें अपने अंकपाश में और अधिक कस लिया और अपने जलते अधरों को उन्होंने शहजादी के क्वारें अधरों पर रख दिए। इस वक्त शहजादी उनके शरीर में और अधिक सिमट गई और फिर दोनों के पवित्र बदन एकाकार हो गए। रात्रि अपने वेग से खिसक चली और उनके मिलन की लाज से चाँद-तारे कभी छिपने और कभी निकलने लगे। और यूँ शहजादी और राजकुमार के मिलन का मधुपर्व आरंभ होता है।