“माँ सहेली को ढूंढती हूँ “
देखी थी दुनिया चढ़ कर
हथेली पर जिसकी
आज वो हथेली को ढूंढती हूँ
चली थी मिलों साथ मेरे
नापने परिधि आकाश की
दिया था ढंग जीने का
बनी थी मैं निधि उनकी
अदम्य साहस वाली
वो माँ सहेली को ढूंढती हूँ
करो उपयोग हर दिन का
सिखाती थी घड़ी बन कर
लुटाओ ऊर्जा इतनी
गिरे ना कोई मन थक कर
अबूझ प्रयास वाली
वो माँ पहेली को ढूंढती हूँ
कोने से आँगन तक आना
सिखाई चाल साहस की
करो खुद व्यक्त अपने को
दिखाई राह उन्नत सी
सुंदर मीनार वाली
वो माँ हवेली को ढूंढती हूँ
खिलाया पुष्प सा मुझ को
करो संत्रप्त सब का मन
सुबासित हो जगत सारा
बनाया सुंदर सा उपवन
गजरे की शान वाली
वो माँ चमेली को ढूंढती हूँ ॥
देखी थी दुनिया चढ़ कर
हथेली पर जिसकी
आज वो हथेली को ढूंढती हूँ
कल्पना मिश्रा बाजपेई
बहुत सुंदर कविता !
आभार सिंघल साहब