आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 10)
हमारा नया और बड़ा कम्प्यूटर बरोज कम्पनी का था। उसकी देखरेख का ठेका सीएमसी लि. नामक कम्पनी को दिया गया था। उस कम्पनी के एक हार्डवेयर इंजीनियर हमारे सेक्शन में स्थायी रूप से पदस्थ थे। उनका नाम था श्री बाला सुब्रह्मण्यम्। उनको बोलचाल में सब ‘बालू’ कहते थे, लेकिन मैं उन्हें पीछे से ‘भालू’ कहता था। उनकी पहाड़ जैसी काया, तवे जैसा काला रंग, फूले हुए नथुने और मोटे काँच के चश्मे के पीछे से झाँकती उनकी बड़ी-बड़ी आँखों की तुलना सहज ही भालू के साथ की जा सकती थी। वैसे वे काफी योग्य थे और मेहनती इतने थे कि लगातार घंटों तक जमीन पर बैठकर कम्प्यूटर को ठीक करते रहते थे।
उन दिनों यू.पी.एस. नहीं हुआ करते थे। कम्प्यूटर को सीधे लाइन से स्टैबिलाइजर के माध्यम से बिजली की सप्लाई हुआ करती थी। हालांकि एच.ए.एल. में बिजली की अच्छी व्यवस्था थी और बहुत कम जाती थी, परन्तु यदि वह एक सेकंड के लिए भी जाती थी, तो कम्प्यूटर ठप्प हो जाता था। इससे सभी चलते हुए काम रुक जाते थे और कम्प्यूटर को फिर से स्टार्ट करना पड़ता था। इस क्रिया को क्लीयर स्टार्ट (Clear Start) करना कहा जाता था। उन दिनों कभी-कभी दिन में 8-10 बार भी क्लीयर स्टार्ट करना पड़ता था। कई बार ऐसा भी होता था कि बिजली जाने से कम्प्यूटर के मुख्य प्रोग्राम आॅपरेटिंग सिस्टम तथा हार्ड डिस्क भी खराब सी हो जाती थी। ऐसा होने पर पहले तो हार्ड डिस्क की सफाई करनी पड़ती थी, फिर आॅपरेटिंग सिस्टम उस पर फिर से लोड करना पड़ता था। इस प्रकार कम्प्यूटर को बिल्कुल ऐसे चलाना पड़ता था, जैसे वह पहली बार चलाया जा रहा हो। इस क्रिया को कोल्ड स्टार्ट (Cold Start) करना कहा जाता था।
वह कम्बख्त कम्प्यूटर इतना नाजुक था कि हर तीसरे-चौथे दिन उसे कोल्ड स्टार्ट करना पड़ता था। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि एक ही दिन में दो-दो बार कोल्ड स्टार्ट करना पड़ा हो। ऐसे ही एक दिन जब बालू जी कम्प्यूटर को कोल्ड स्टार्ट कर रहे थे, तो मैंने उनसे व्यंग्य में कहा- ‘एक बार इसे हाॅट स्टार्ट (Hot Start) करो, मिस्टर बालू’। वे बोले- ‘यह कोई मजाक नहीं है, क्योंकि एक वार्म स्टार्ट (Warm Start) भी होता है।’ मैंने कहा- ‘तो वही करो।’ वैसे उस कम्प्यूटर का साॅफ्टवेयर बहुत शक्तिशाली था। इसलिए मैं प्रायः मजाक में कहता था कि ‘यह एक विचित्र कम्प्यूटर है। इसका साॅफ्टवेयर तो हार्ड है और हार्डवेयर साॅफ्ट है।’ इस पर सब लोग हँसते थे।
कुछ समय बाद श्री बालू के सम्बंध हमारे सेक्शन के कुछ अधिकारियों से बिगड़ गये, खास तौर से श्री हरमिंदर सिंह से, जो कम्प्यूटर के इंचार्ज थे। बात किसी मैनुअल की थी, जिसे शायद हरमिंदर जी ने छिपा लिया था। दुर्भाग्य से उस मैनुअल की दूसरी प्रति उपलब्ध नहीं थी। इसलिए बालू जी बहुत भन्नाये थे। लगभग दो-ढाई साल एच.ए.एल. में हमारे सेक्शन में रहकर जब बालू जी का स्थानांतरण हुआ, तो सेक्शन ने उनको औपचारिक विदाई भी नहीं दी थी। इसका मुझे बहुत बुरा लगा था, लेकिन मैं कुछ कर नहीं सकता था। श्री बालू के बाद जो इंजीनियर वहाँ आये थे, वे वहाँ केवल 6 महीने रहे थे, लेकिन उनको बाकायदा विदाई दी गयी थी।
श्री बाला सुब्रह्मण्यम् के साथ एक और इंजीनियर थे श्री आप्टे। उनके साथ हमारे बहुत अच्छे सम्बंध बन गये थे। वे हमारे साथ चिनहट की पिकनिक पर भी गये थे। दुर्भाग्य से वे बम्बई में एक मोटर साइकिल दुर्घटना में घायल हो गये और शायद इलाज में लापरवाही से काॅमा में चले गये। तीन-चार माह बाद काॅमा में ही उनका देहांत हो गया था। इसका हमें बहुत दुःख हुआ था।
प्रारम्भ में हमें ट्रेनिंग देने के लिए एक साॅफ्टवेयर इंजीनियर भी वहाँ रहे थे। उनका नाम था श्री दत्ता राम, लेकिन लोग उनके नाम का गलत उच्चारण ‘दाता राम’ किया करते थे। उसको अंग्रेजी में ‘Data Ram’ लिखा जाता था और ‘डाटा राम’ पढ़ा जाता था। हालांकि उनका ज्ञान अच्छा नहीं था और मेरे कई प्रश्नों का वे संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाते थे।
कम्प्यूटर कम्पनी के इंजीनियरों को हमारे यहाँ अर्थात् एच.ए.एल. में अधिकारियों जितना ही सम्मान दिया जाता था, जिसके वे पात्र भी थे।
अधिकारियों के अलावा वहाँ आॅपरेटर कर्मचारियों की एक बड़ी संख्या थी, जिनके नामों का उल्लेख ऊपर कर चुका हूँ। इस सभी के बारे में विस्तार से बताना न तो सम्भव है और न आवश्यक ही। लेकिन कुछ के बारे में अवश्य बताना चाहूँगा।
उनमें सबसे प्रमुख नाम है श्री तारक नाथ सरकार का। वे अपने मोहल्ले में ‘हिटलू सरकार’ के नाम से जाने जाते थे। जैसा कि नाम से स्पष्ट है वे बंगाली थे और लखनऊ में ही पैदा हुए थे। इसलिए उनका बंगाली और हिन्दी दोनों का ज्ञान उच्चकोटि का था। उनकी विशेषता यह थी कि वे नाटककार थे। नाटक लिखते भी थे और खेलते भी थे। उनके नाटक प्रायः रेडियो पर प्रसारित होते थे। एक-दो नाटक टी.वी. पर भी आये थे। रेडियो पर प्रसारित होने वाले नाटकों की रिकाॅडिंग बहुत सावधानी से करनी पड़ती थी। उसमें कोई एक्शन नहीं होता, केवल डायलाॅग और ध्वनियाँ होती हैं। एक बार एक नाटक की रिकाॅडिंग देखने मैं भी श्री तारक नाथ सरकार के साथ गया था। उस दिन वहाँ लखनऊ की कुमकुम धर नामक प्रसिद्ध अभिनेत्री भी रिकाॅडिंग के लिए आयी थी।
तारक नाथ सरकार को सब लोग ‘दादा’ कहा करते थे। बंगाल में इसका अर्थ होता है ‘बड़े भाई’। वे थे भी बड़े भाई जैसे, क्योंकि काफी वरिष्ठ थे। मुझे वे छोटे भाई की तरह मानते थे और मैं भी उन्हें बड़े भाई का सा सम्मान देता था। हालांकि प्रारम्भ में मेरे साथी पुराने अधिकारियों ने मुझे चेताया था कि यह आदमी कोई काम नहीं करता और परेशानी पैदा करता है, इसलिए इससे दूर रहना। पर मेरे ऊपर ऐसी सलाहों का उल्टा ही असर होता था। वैसे भी मेरा स्वभाव सबसे घुलने-मिलने का है। इसलिए मैं अधिकारियों और कर्मचारियों में समान रूप से लोकप्रिय अथवा अलोकप्रिय था।
प्रारम्भ में एक बार हमारे प्रबंधक आचार्य जी ने मुझे लाइब्रेरी की किताबों की सूची तैयार करने और उनको पूरी तरह व्यवस्थित करने के लिए कहा। उस लाइब्रेरी में केवल मैनुअल थे, जो हमारे नये कम्प्यूटर के हार्डवेयर और साॅफ्टवेयर के बारे में थे। उन मैनुअलों की संख्या लगभग 200 थी। एक ही मैनुअल की 1 से 5 तक प्रतियाँ थीं। उस पर तुर्रा यह कि वे मैनुअल विभिन्न अधिकारियों ने अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुसार पढ़ने के लिए ले लिये थे और लौटाये नहीं थे। मैनुअल लेने-देने का कोई रिकार्ड भी नहीं था। कई लोगों को तो यह भी मालूम नहीं था कि उनके पास कितने और कौन-कौन से मैनुअल कहाँ-कहाँ पड़े हुए हैं। मेरा कार्य था सभी मैनुअलों का भौतिक सत्यापन भी करना अर्थात् पता लगाना कि कौन सा किसके पास कहाँ पर है। प्रारम्भ में मेरे पास केवल एक सूची थी, जिसमें बस यह लिखा था कि किस मैनुअल की कितनी प्रतियाँ आयी थीं।
काम बहुत जटिल था और हालांकि यह कार्य मैं अकेला भी कर सकता था, लेकिन सहायता के लिए मैंने सरकार दादा को अपने साथ लगा लिया। घोर आश्चर्य कि वे बिना नानुकर किये तैयार हो गये और जी भरकर मेरी सहायता की। पहले तो मैंने एक रजिस्टर में सभी मैनुअलों की सूची बनायी और उन पर नम्बर डाले। जो मैनुअल उपलब्ध थे, पहले उन पर नम्बर डाल दिये। फिर जो अधिकारियों से आसानी से मिल गये, उन पर भी नम्बर डाल दिये। साथ ही सबको दो-तीन अलमारियों में व्यवस्थित किया। फिर मैंने खोये हुए मैनुअलों की सूची बनायी तो 24-25 मैनुअल गायब मिले यानी वे जिनका कोई अता-पता नहीं था। मैं चाहता तो अपना काम वहीं रोक सकता था, लेकिन मैंने ठान लिया था कि सभी मैनुअलों का पता लगाना है।
फिर मैंने एक-एक करके सभी अधिकारियों की मेजों के ड्राॅअरों और रैक वगैरह की खाना-तलाशी लेना शुरू किया। इस कार्य में समय तो लगता ही है, लेकिन मात्र 3 दिन में मैंने सबकी तलाशी ले डाली और लोग यह देखकर दंग रह गये कि केवल एक मैनुअल को छोड़कर सारे मैनुअल मिल गये। वह अकेला मैनुअल भी बाद में एक अधिकारी के घर पर मिल गया। इस प्रकार मेरा कार्य पूर्ण हुआ। इस पूरे कार्य में केवल 8-10 दिन का समय लगा था और लाइब्रेरी पूरी तरह व्यवस्थित हो गयी थी। फिर उसके मैनुअलों के लेन-देन का भी पूरा हिसाब रखा जाने लगा था।
उस समय तक हमारा कम्प्यूटर ठीक से चालू नहीं था, इसलिए मैंने कोई विशेष कार्य नहीं किया था। लेकिन इस कार्य से सबको विश्वास हो गया कि यह हद दर्जे का कर्मठ आदमी है। इससे भी बड़ी बात सरकार दादा से काम लेने की थी। मुझसे कुछ अधिकारियों ने कहा भी कि ‘तुम महान् हो कि सरकार जैसे आदमी से भी काम ले सकते हो, क्योंकि सभी लोग उससे कोई काम निकालने में असफल हो चुके हैं।’ लेकिन मैं जानता था कि प्यार से सब कुछ सम्भव है। बाद में भी सरकार दादा विभाग के कामों में यथासम्भव सहयोग करते रहते थे। उनसे मेरे सम्बंध अन्त तक अच्छे बने रहे। एक बार मैं उनके घर भी गया था और वहाँ भोजन भी किया था। उनकी पत्नी यानी हमारी भाभी जी बहुत स्नेहशील हैं। उनके दो पुत्र हैं, जो संगीत में अच्छी पैठ रखते हैं। उन्होंने मंचों पर भी कार्यक्रम दिये हैं। आजकल वे क्या कर रहे हैं मुझे पता नहीं। दादा तो रिटायर हो चुके हैं।
(जारी…)
कथा काफी रोचक हुई जा रही है , मज़ा ले रहे हैं .
बहुत-बहुत धन्यवाद, भाई साहब. आगे की कहानी और भी रोचक है. पढ़ते जाइये.
आज की किश्त पूर्व की भांति रोचक एवं कम्प्यूटर विषयक जानकारी में वृद्धि करने वाली है. मनुष्य के अलग-अलग प्रकार के व्यवहार वा उनके प्रति काम न करने वाले लोगो के प्रति दूसरों की धारणा को प्रेम, मित्रता, सहयोग आदि से बदला जा सकता है, इसका भी उदाहरण मिलता है। आपने लाइब्रेरी को व्यवस्थित कर दिखाया यह आपके व्यक्तिगत गुणों वा कठिन कार्यों को करने की चुनौती को स्वीकार करने की भावना का परिणाम लगता है। आज की कड़ी के सभी विवरण प्रेरणादायक हैं। इसके लिए धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार, मान्यवर !