उपन्यास : देवल देवी (कड़ी 36)
32. अपभ्रष्ट शहजादा
सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी का सबसे बड़ा पुत्र खिज्र खाँ जो रात दिन सिर्फ अफीम और मद्यपान करके यौनसुख में लिप्त रहता था। वह नित्य नई दासी अपनी शय्या हेतु खोजा करता था। अत्यधिक मद्यपान की अवस्था में लड़खड़ाते पैरों से खिज्र खाँ देवलदेवी के कक्ष में घुसा। द्वार पर खड़ी बांदियों ने द्वार से हटकर उसे अंदर जाने का मार्ग उपलब्ध कराया। इस समय देवलदेवी अकेली थी, प्रमिला को रानी कमलावती ने अपनी निजी दासियों में सम्मिलित कर लिया था। प्रमिला और देवलदेवी ने इसका पुरजोर विरोध किया पर नक्कारखाने में तूती की आवाज कभी सुनाई पड़ती है? रानी कमलावती (मलिका-ए-हिंद) के भेजे हुए हिजड़े प्रमिला को उसके केशो से पकड़कर खींचते हुए कक्ष से बाहर ले गए और देवलदेवी रोती-बिलखती सुनसान कक्ष में अकेली रह गई।
अभी देवलदेवी अपने भाग्य के फेर पर रो-बिलख रही थी तभी उसे कक्ष में किसी के आने का आभास हुआ, उसने घुटनों से अपना सिर उठाकर देखा तो सामने खुद को संभालता हुआ एक व्यक्ति था। उसके हाथों में मद्य का गिलास और उस गिलास की मद्य के असर से उसके लड़खड़ाते कदम। देवलदेवी अपने वस्त्र सही करती हुई उठकर खड़ी हो जाती है। खिज्र खाँ का रंग साँवला और शरीर गठीला है पर अतिशय मद्यपान और यौन संबंधों के कारण उसके शरीर में शिथिलता आ गई है। आँखों में मद्य के असर से लालिमा है और हांेठ अफीम के असर से काले पड़ चुके हैं। खिज्र खाँ भिंची-भिंची आँखों से एकटक देवलदेवी को निहारता है।
”सुभानअल्लाह, यह खूबसूरती अब तक कहाँ छिपी थी, जहाँ का सबसे खूबसूरत मोती भी आपके हुस्नोशबाब के आगे बेकार है। बिल्कुल बहिश्त की अप्सराओं की तरह हैं आप।“
बोलते-बोलते खिज्र खाँ देवलदेवी की ओर बढ़ता है, पर कदम लड़खड़ाने की वजह से गिरता है पर उसके गिरने से पहले ही देवलदेवी उसे संभाल लेती है।
”आज पहली बार हमारे लड़खड़ाने पर इतने नाजुक हाथों ने हमें संभाला है।“
”गिरते हुए को तो संभालना हमारी परंपरा रही है।“ देवलदेवी पुनः खिज्र खाँ को संभालकर खड़ा कर देती है।
”कितना नाजुक, कितना गुदाज है तुम्हारा जिस्म! क्या हम आपका नाम जान सकते हैं।“
”जिस्म की पहचान संभवतः बहुत है आपको। पर आप संभवता यह नहीं जानते कि जिस्म कितना भी नाजुक हो उसके भीतर स्थिति मन उससे भी अधिक नाजुक होता है।“
”बातों में मत उलझाइए हमें, अब तक तुमने हमारे सवाल का जवाब नहीं दिया। तुम शायद यह नहीं जानती यह हमारा सवाल नहीं हुक्म है शहजादे खिज्र खाँ के हुक्म की तौहीन का अंजाम बहुत बुरा होता है।“
”ओह तो हम शहजादे के हूजुर में हैं, हमें ज्ञात नहीं था। पर शहजादे ने हमें क्या हुक्म दिया था?“
”हमने तुम्हारा नाम जानना चाहा था।“
”कैदियों के नाम नहीं होते शहजादे। आप जिस नाम से चाहें हमें बुला सकते हैं।“
”ओह! तुम सीधे से सवालों का जवाब क्यों नहीं देती, तुम्हारी जवानी और महकता जिस्म पहली नजर में ही हमारे दिलोजेहन में तुम्हारे लिए मुहब्बत पैदा कर रहा है। ऐ ताजे गुलाब की तरह महकते जिस्म वाली दिल्ली सल्तनत का वलीअहद शहजादा खिज्र खाँ तुम्हारी कदम बोशी करता है, अब तुम उसे अपने नाम की कैफियत से महरूम मत रखो।“
शहजादा खिज्र खाँ देवलदेवी के पैरों की ओर झुकता है, पर लड़खड़ाकर गिर जाता है। देवलदेवी शहजादे से थोड़ी दूर हटते हुए बोली ”कैदियों की हैसियत किसी दासी की तरह होती है शहजादे उसके पैरों को स्पर्श करके अपने सम्मान को कम मत कीजिए। कैदी को अब तक देवलदेवी के नाम से बुलाया जाता रहा है।“
खिज्र खाँ संभलकर उठकर फर्श पर बैठते हुए, ”तो आप हैं गुजरात की शहजादी देवलदेवी और आपको इस तरह दासी की तरह रखा गया है।“ हाथ से ताली बजाता है, दासी आकर ‘जी शहजादे हुजूर’ कहकर खड़ी हो जाती है।
”बांदी, शहजादी देवलदेवी के लिए फौरन शय्या और तमाम चीजों का बंदोबस्त करो।“ बांदी ‘जी हुजूर’ कहकर चली जाती है।
”दासी को इन चीजों के उपयोग का अधिकार नहीं होता।“
”नहीं-नहीं देवलदेवी, हमारी होने वाली मलिका ऐसे रहे ये हमें गवारा नहीं।“ इतना कहकर खिज्र खाँ वापस फर्श पर लुढ़क जाता है और देवलदेवी की आँखें सोचने की मुद्रा में सिकुड़ जाती है तथा उसके होठों पर एक मुस्कान बिखर जाती है।
जो लोग अनायास ही ऐश्वर्य पा जाते हैं, वे इसी प्रकार पथभ्रष्ट हो जाते हैं. रोचक कथा !